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१२ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार
अनुमानकी प्रामाणिकता या सत्यता लिंग-लिंगोके सम्बन्धपर आश्रित है । वह सम्बन्ध नियत साहचर्यरूप है । सूत्रकार गौतम उसके विषय में मौन हैं। पर भाष्यकारने ' उसका स्पष्ट निर्देश किया है। उन्होंने लिंगदर्शन और लिंगस्मृतिके अतिरिक्त लिंग ( हेतु ) और लिंगी । हेतुमान् साध्य ) के सम्बन्ध दर्शनको भी अनुमिति में आवश्यक बतला कर उस सम्बन्धके मर्मका उद्घाटन किया है । उनका मत है कि सम्बद्ध हेतु तथा हेतुमान् के मिलनेसे हेतुस्मृतिका अभिसम्बन्ध होता है और स्मृति एवं लिंगदर्शनसे अप्रत्यक्ष ( अनुमेय, अर्थका अनुमान होता है । भाष्यकारके इस प्रतिपादनसे प्रतीत होता है कि उन्होंने 'सम्बन्ध' शब्दसे व्याप्ति-सम्बन्धका और 'लिंगलिंगिनोः सम्बद्धयोदर्शनम्' पदोंसे उस व्याप्ति सम्वन्धके ग्राहक भूयोदर्शन या सहचारदर्शनका संकेत किया है जिसका उत्तरवर्ती आचार्योंने स्पष्ट कथन किया तथा उसे महत्त्व दिया है । २ वस्तुतः लिंग-लिंगीको सम्बद्ध देखनेका नाम ही सहचारदर्शन या भूयोदर्शन है, जिसे व्याप्तिग्रहणमे प्रयोजक माना गया है । अतः वात्स्यायनके मत से अनुमानकी कारण- सामग्री केवल प्रत्यक्ष ( लिंगदर्शन ) ही नहीं है, किन्तु लिंग दर्शन, लिंगलिंगी सम्बन्धदर्शन और तत्सम्बन्धस्मृति ये तीनों हैं । तथा सम्बन्ध ( व्याप्ति ) का ज्ञान उन्होंने प्रत्यक्ष द्वारा प्रतिपादन किया है, जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती तार्किक भी किया है ।
वात्स्यायनकी एक महत्त्वपूर्ण उपलबधि और उल्लेख्य है । उन्होंने अनुमानपरीक्षा प्रकरण में त्रिविध अनुमानोंके मिध्यात्वकी आशंका प्रस्तुत कर उनकी सत्यताको सिद्धिकेलिए कई प्रकारसे विचार किया है । आपत्तिकार कहता है कि 'ऊपर के प्रदेश में वर्षा हुई है, क्योंकि नदीमें वाढ़ आयी है; " वर्षा होगी, क्योंकि चींटियाँ अण्डे लेकर जा रही हैं ये दोनों अनुमान सदोष हैं, क्योंकि कहीं नदी की धारा में रुकावट होनेपर भी नदी में वाढ़ आ सकती है । इसी प्रकार चींटिओका अण्डों सहित संचार चींटियोंके बिलके नष्ट होनेपर भी हो सकता है । इसी तरह सामान्यतो
१. लिंगलिगिनो: सम्बन्धदर्शनं लिगदर्शनं चाभिसम्बद्धयते । लिगलिगिनोः सम्बद्धयोर्दर्शनेन लिंगस्मृतिरभिसम्बद्धयते । स्मृत्या लिंगदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽर्थोऽनुमीयते ।
-न्यायभा० ११ १/५, पृष्ठ २१ ।
"यथास्वं भूयोदर्शनसहायानि स्वाभाविकसम्बन्धग्रहणे प्रमाणान्युन्नेतव्यानि ... । वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० १ १/५, पृष्ठ १६७।
३. उद्योतकर, न्यायवा० १।११५, पृष्ठ ४४ । न्यायवा० ता० टी० १/१/५, पृष्ठ १६७ । उदयन, न्यायवा० ता० टी० परिशु० १११५, पृष्ठ ७०१ । गंगेश, तत्र चिन्तामणि, जागदी० पृष्ठ ३७८, आदि ।
४, ५; ६. न्यायभा० २।११३८, पृष्ट ११४ ।
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