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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
कि उसमें प्रवृत्त होना चाहिए या नहीं? सफलता मिलेगी या नहीं? (ख ) सभा को जान कर प्रवृत्त हो अर्थात् यह जान लेवे कि सभा किस ढंग की है, कैसे विचारों की है ? सभ्य लोग मूर्ख हैं या विद्वान् ? वे किस बात को पसन्द करते हैं ? इत्यादि। (ग) क्षेत्र को समझना चाहिए अर्थात् जहाँ शास्त्रार्थ करना है उस क्षेत्र में जाना और रहना उचित है या नहीं ? अगर वहाँ अधिक दिन ठहरना पड़ा तो किसी तरह के उपसर्ग की सम्भावना तो नहीं है ?आदि। (घ) शास्त्रार्थ के विषय को अच्छी तरह समझ कर प्रवृत्त हो। यह भी जान ले कि प्रतिवादी किस मत को मानने वाला है। उसका मत क्या है। उसके शास्त्र कौन से हैं आदि। (८) संग्रहपरिज्ञा सम्पदा-वर्षा (चौमासा) वगैरह के लिए मकान, पाटला, वस्त्रादि का ध्यान रख कर आचार के अनुसार संग्रह करना संग्रहपरिज्ञा सम्पदा है। इसके चार भेद हैं- (क) मुनियों के लिए वर्षा-ऋतु में ठहरने योग्य स्थान देखना । (स्व) पीठ, फलक, शय्या, संथारे वगैरह का ध्यान रखना (ग) समय के अनुसार सभी आचारों का पालन करना तथा दूसरे साधुओं से कराना । (घ) अपने से बड़ों का विनय करना।
( दशाश्रुतस्कन्ध दशा ४ ) (ठाणांग सू० ६.१) ५७५.आलोयणा देने वाले साधु के आठ गुण
आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होता है(१) आचारवान्- ज्ञानादि आचार वाला। (२) आधारवान्– बताए हुए अतिचारों को मन में धारण करने वाला। (३)व्यवहारवान्-श्रागम आदि पाँच प्रकार के व्यवहार वाला। (४) अपव्रीडक-शमे से अपने दोषों को छिपाने वाले शिष्य की मीठे वचनों से शमेदूर करके अच्छी तरह पालोचनांकराने वाला।