Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 7
________________ यह एक सत्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक संरचना और आध्यात्मिक-अभ्युदय में भी नारी की भूमिका गरिमा प्रधान रही है। यर्थार्थ अर्थ में महिला बालक की प्रथमशिक्षिका होती है और वह उस के पवित्र-चरित्र का समीचीन संगठन कर पाती है। इस दृष्टि से यह अति स्पष्ट है कि नारी न केवल समय-समाज की माता है, अपितु वह राष्ट्र-माता के रूप में भी समादृता है, ऐसी उत्कृष्टअवस्था में नारी को हीनत्व-स्तरीय समझना न केवल सदोष है, अपितु आत्मिक-हनन का उपक्रम भी है, जो अनुचित है। यथार्थता यह है कि नारी किसी भी अपेक्षा अथवा आधार से पुरुष की दृष्टि रूप में निम्न रूपा नहीं है, किन्तु किसी न किसी दृष्टिकोण से श्लाघनीया है। पुरुष स्वयं भी इस का पुनः-पुनः उपकृत रहा है। नारी मानव को महामानव बनाये रखने की असीम-क्षमता से सम्पन्ना है। तब नारी पुरुष की कर्कशता को अनुपमअनुराग के द्रव्य में घोल कर समाप्त कर देती है। इसी परिपार्श्व में यह ज्ञातव्य-विषय है कि नारी का सर्वोच्च-स्वरूप"श्रमणी" भी है, जिसमें देवत्व के लक्षण संनिहित हैं और वह यह विराट-वैभव पुरुष को प्रदान करने में कार्पण्य का परिचय नहीं देती है। उसके प्रभावीप्रयासका सम्पूर्ण-साफल्यपुरुषकी मानवोचित सत्यपूर्णप्रवृत्तियों के रूप में आभासित होता है। अन्यथा मानव हिंसाप्रतिहिंसा का प्रतीक होकर आकृति-मात्र रह जाता है। नारी रूप में श्रमणी की वृत्तियाँ वह पारस-संस्पर्श हैं जो नर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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