________________
जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण पोइणी श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ कुमारगिरि पर आयोजित श्रमण सम्मेलन में उपस्थिति प्रदान करती है। रूद्रसोमा अपने पुत्र आर्यरक्षित को पूर्वो का अध्ययन करने के बहाने संयम पथ पर आरूढ़ करवाती है। ईश्वरी संकटकाल से प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार में विरक्ति की भावनाएँ जागृत करती है। याकिनी महत्तरा जैन धर्म के कट्टर विद्वेषी विद्वान् हरिभद्र को अपनी व्यवहार कुशलता
और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में जोड़ती है। पाहिनी गुरू के वचनों को श्रवण कर पाँच वर्ष के नन्हें पुत्र को गुरू चरणों में समर्पित कर देती है, वही राजा कुमारपाल का प्रतिबोधक एवं कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त गण, कुल शाखा से अनुबद्ध वीर निर्वाण 527 से 927 तक की उन श्रमणियों के भी उल्लेख प्राप्त होते है जो विशेषतः मथुरा के मंदिरों, वहाँ की मूर्तियों की प्रेरणादात्री रही हैं।
दिगंबर-परम्परा :
जैनधर्म में दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा का भेद स्पष्ट रूप से वी.नि. 609 के लगभग प्रगट हुआ माना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org