Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004174/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण • डॉ. साध्वी विजयश्री 'आर्या ARE Jain Education Interna For Personal & Private Usat ICAvial पER HOM Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा: एक सर्वेक्षण - डॉ. साध्वी विजयश्री 'आर्या' For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक: जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण लेखिका: डॉ. साध्वी विजयश्री 'आर्या' आशीर्वाद : पंजाब प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी म.सा. मंगल वर्ष : अध्यात्म योगिनी महाश्रमणी श्री कौशल्या देवी जी म. सा. की 80 वीं जन्म जयंती वर्ष जुलाई 2007 प्रकाशक: भारतीय विद्या प्रतिष्ठान, रोहिणी, दिल्ली अजीत जैन : 9311292123 मूल्य: सदुपयोग For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमोत्धुणं समणरस भगवओ महावीरस्सा। ||जय आत्मा। ॥जय आनंद।। जय ज्ञान।। जय देवेन्द्र।। आचार्य शिवमुनि मंगल संदेश परम विदुषी महासाध्वी श्री विजयश्री जी महाराज ने जिनशासन में महासतीवृंद का योगदान इस विषय पर शोध ग्रन्थ लिखा। महासतीजी का शोध-ग्रन्थ बड़ा ही प्रामाणिक ढंग से खोजपूर्ण एवं मौलिक है। वर्तमान युग में जैन धर्म में संतों के विषय पर तो ऐतिहासिक जानकारियाँ अत्यधिक मिलती है किन्तु नारी शक्ति के बारे में बहुत ही कम जानकारी प्राप्त होती है। ऐसे में महासतीजी ने गहन शोध करके इस विषय पर अपना मौलिक चिन्तन रखा है। इनका यह शोध ग्रन्थ जिनशासन की प्रभावना और महिमा बढ़ाने में सहयोगी बने, ऐसी हम मंगल कामना करते हैं। वीतराग-मार्ग में चारों तीर्थों का समान महत्व है जिसमें नारी शक्तिका महत्वपूर्ण योगदान है। समय-समय पर जिनशासन में ऐसी महान् नारियाँ हुई है जिनके उल्लेख के बिना For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास अधूरा है। इस कमी की प्रतिपूर्ति महासतीजी के शोध ग्रन्थ ने की है। यह ग्रन्थ सभी के ज्ञानार्जन में सहयोगी बने और वीतराग - मार्ग प्रशस्त हो ऐसी मंगल कामना करते हैं। महासाध्वी श्री विजयश्री जी महाराज का जीवन अध्यात्म से भरपूर गुणग्राहक है और चिन्तन से परिपूर्ण हैं आप विनय की प्रतिमूर्ति हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में आप उत्तरोत्तर अभिवद्धि को प्राप्त करें। यही हार्दिक मंगल भावना। सहमंगल मैत्री आचार्य शिवमुनि एस. एस. जैन सभा जैन बाजार जम्मू तवी - जे.एण्ड. के. दि. 5 अक्टूबर, 2006 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् समाज वस्तुतः एक मंगल-स्वरूप महारथ है, नर और नारी इसी रथ के अविचल चक्र हैं। ये दोनों ही चक्र परस्पर-संपूरक हैं और इनमें अविनाभाव सम्बन्ध सर्वदा सर्वथारूपेण संनिहित हैं। यह वह अवस्था है, जो इन दोनों के लिये सुखद-संयोग कीर्वणमयी पृष्ठभूमि निर्मित कर देती है। इसी सन्दर्भ में यह पूर्णतः प्रगट है कि पुरुष वर्ग की दम्भपूर्ण वृत्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ सद्रूप से उद्घोषित किये बिना नहीं रह पाती है। मानव-विहित शास्त्रीय बन्धन भी नारी के लिये प्रतिबन्ध संप्रस्तुत करते हैं। यही मुख्य एवं मूल हेतु है कि उसे दीनत्व और हीनत्व के दृष्टिकोण से स्वीकृत किया गया। कि बहुना, अबला को दीनता-प्रधान विशेषण का विशेष्य बना दिया। यह कदाचित् नारी की सर्वात्मना-समर्पणा और अतिशयसहिष्णुता के रूप में चरितार्थ रहा है। पुरुष का अहंभाव अग्रिम-स्वरूप में घटित हुआ। उस का सामाजिकअधिष्ठान भी अधोमुखी हुआ, वह दिव्य-देवी से दीना एवं हीना बनती रही, एतदर्थ उस के प्रति मानव-मानस भी स्वाभाविक-संवेदना से लुप्तप्रायः किंवा शून्य प्रायः रहा। For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह एक सत्यपूर्ण तथ्य है कि सामाजिक संरचना और आध्यात्मिक-अभ्युदय में भी नारी की भूमिका गरिमा प्रधान रही है। यर्थार्थ अर्थ में महिला बालक की प्रथमशिक्षिका होती है और वह उस के पवित्र-चरित्र का समीचीन संगठन कर पाती है। इस दृष्टि से यह अति स्पष्ट है कि नारी न केवल समय-समाज की माता है, अपितु वह राष्ट्र-माता के रूप में भी समादृता है, ऐसी उत्कृष्टअवस्था में नारी को हीनत्व-स्तरीय समझना न केवल सदोष है, अपितु आत्मिक-हनन का उपक्रम भी है, जो अनुचित है। यथार्थता यह है कि नारी किसी भी अपेक्षा अथवा आधार से पुरुष की दृष्टि रूप में निम्न रूपा नहीं है, किन्तु किसी न किसी दृष्टिकोण से श्लाघनीया है। पुरुष स्वयं भी इस का पुनः-पुनः उपकृत रहा है। नारी मानव को महामानव बनाये रखने की असीम-क्षमता से सम्पन्ना है। तब नारी पुरुष की कर्कशता को अनुपमअनुराग के द्रव्य में घोल कर समाप्त कर देती है। इसी परिपार्श्व में यह ज्ञातव्य-विषय है कि नारी का सर्वोच्च-स्वरूप"श्रमणी" भी है, जिसमें देवत्व के लक्षण संनिहित हैं और वह यह विराट-वैभव पुरुष को प्रदान करने में कार्पण्य का परिचय नहीं देती है। उसके प्रभावीप्रयासका सम्पूर्ण-साफल्यपुरुषकी मानवोचित सत्यपूर्णप्रवृत्तियों के रूप में आभासित होता है। अन्यथा मानव हिंसाप्रतिहिंसा का प्रतीक होकर आकृति-मात्र रह जाता है। नारी रूप में श्रमणी की वृत्तियाँ वह पारस-संस्पर्श हैं जो नर For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोह को स्वर्णिम-आभा से भासमान कर देता है। श्रमणी वस्तुतः श्रामण्य से विमुख नहीं होती है, कृत्रिमता से समाकृष्ट भी नहीं हो पाती है, उसने अपनी गरिमा को विस्मृति के गहरे गर्त से सदा दूर रखा है। वह वास्तव में समाज के लिये अभिशाप रूप नहीं, अपितु वरदान रूप होती है। उसके समक्ष सर्वोच्च आदर्श का परिस्पष्टपरिलक्ष्य भी है। उसकीगति अधोमुखी नहीं, किन्तु ऊर्ध्व मुखी है। उससे राष्ट्रीय-कल्याण भी संभव है, इसी से उस का मंगल निहित है। वह स्वयं से परिचित है। तभी यथार्थ से आदर्श की आनन्दपूर्ण मंगल यात्रा संभव हो पाती इसी परिप्रेक्ष्य में सत्य और शील की ज्योतिशिखा साध्वी श्री विजयश्री जी "आर्या" द्वारा आलिखित "जैन श्रमणियों काबृहद् इतिहास" वस्तुतः एक शोधपूर्णग्रन्थ है। यह अन्थ रचना धर्मिता का एक उपमान है, प्रतिमान भी है। शोधार्थिनीसाध्वीश्रीजीने विषय-वस्तुको अष्टविध अध्याय में वर्गीकृत भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया है। जिससेग्रन्थ का व्यक्तित्व आभापूर्णरूपसेरूपायित है। इतना ही नहीं इससे यह पूर्णतः प्रगट है कि श्रद्धास्पदा साध्वी श्री जी माता शारदा की दत्तका नहीं, अपितु अंगजाता आज्ञानुवर्तिनी सुयोग्य नन्दिनी है। मुझे भी अतिशय-प्रसन्नता है कि प्रतिभा-पद्म श्री साध्वी श्रीजी के उपक्रम और पराक्रम का मणि-कांचन संयोग प्रस्तुत शोध पूर्ण ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय और For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक अध्याय के प्रत्येक स्वर्ण-पृष्ठ पर परिदृश्यमान है। मंगल-प्रभातकी मंगल वेला में मेरीयही मंगल कामना है कि यह शोध पूर्ण महीयसी संरचना जन-मानस में दुराचार के प्रदूषण को सुदूर करती रहे, सदाचारण के पर्यावरण को परिव्याप्त करे, जिससे मानव-जाति उत्तमांग गौरव-गरिमा से उन्नत एवं उदात्त हो सकेगी। उपाध्याय रमेश मुनि वल्लभ विहार, दिल्ली 9-5-2007 For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत साध्वी श्री विजयश्री जी ने अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए लगभग 10000 श्रमणियों के अवदान के विषय में सूचनाएँ एकत्रित की है । मात्र नामोल्लेख की दृष्टि से तो यह संख्या उससे भी अधिक होगी। उनका यह कार्य अत्यन्त परिश्रमपूर्ण रहा है। निश्चय ही श्रमणी संघ के इतिहास की दृष्टि से उनका यह श्रम सार्थक हुआ है और भावी शोधकर्ताओं के लिए आधारभूत और प्रेरणास्पद बनेगा। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए मैं अपनी ओर से और समस्त जैन संघ की ओर से उन्हें बधाई देना चाहूँगा और यह अपेक्षा रखूँगा कि वे भविष्य में इसी प्रकार से जैन भारती का भण्डार भरती रहें। डॉ. सागरमल जैन निदेशक प्राच्य विद्यापीठ शाजापुर (म. प्र. ) कार्तिक पूर्णिमा, वि.सं. 2063 For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक श्रेष्ठ श्री विमल प्रकाश जैन श्रावक श्रेष्ठ श्री विमल प्रकाश जी जैन एस. एस. जैन सभा जालन्धर के लोकप्रिय प्रधान हैं। आपके पिता श्री मुन्नीलाल जी जैन स्यालकोट से विभाजन के पश्चात् जालन्धर आए और अपनी कर्मठता से यशस्वी समाजसेवी एवं उद्योगपति बनें 56 वर्षीय श्री विमल प्रकाश जैन भो एक उद्योगपति एवं समाजसेवी हैं। आपका प्रतिष्ठान आत्म एण्ड फैबी वाल्वस प्रा. लि. जालन्धर शहर का एक नामी गिरामी उद्योग है। जिसे पंजाब सरकार के गर्वनर जनरल श्री मल्होत्रा जी ने एक्सपोर्ट एवार्ड से सम्मानित किया है। आप अम्बिका बिल्डर्स जालन्धर में भी मैनेजिंग पार्टनर है। आपकी सामाजिक गतिविधियों का विस्तार देशव्यापी है। गतवर्ष आपको अ. भा. श्वे. स्था. जैन कान्फ्रेंस ने "ज्ञान प्रकाश योजना" का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त करके आपकी स्वाध्याय प्रेमी रूचि को प्रतिष्ठा प्रदान की थी। आपके परिवार में आपके योग्य पुत्र श्री अमित जैन एवं पुत्रवधु श्रीमती प्रमिला जैन पौत्र श्री भाविक एवं तनिष जैन से समाज को बड़ी आशाएँ हैं । For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व में अनेक धर्म हैं, उन धर्मों का सामाजिक लौकिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक उन्नति में क्या अवदान रहा, इसे जानने के लिए उस धर्म के इतिहास को जानना आवश्यक है। जैन धर्म एक शुद्ध चिरन्तन और सार्वजनीन धर्म है, उसके चतुर्विध तीर्थ श्रमणश्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप संघ में श्रमणी संघ एक महत्त्वपूर्ण इकाई है । यद्यपि जैन श्रमणी संघ का इतिहास प्रलम्ब अतीत से अद्यपर्यन्त गंगा की निर्मल धारा के समान अनवरत चलता चला आ रहा है, किन्तु इतिहास के सीमित साधन, श्रमणी संघ का शतशाखी विस्तार और श्रमणी परम्परा की प्रामाणिक विकास कथा का अभाव - इन सब कारणों से श्रमणी संघ की कड़ी से कड़ी को जोड़ना और उनके सम्पूर्ण योगदानों को संग्रहित करना एक दुःसाध्य कार्य है। तथापि भगवती सूत्र, अन्तकृद्दशांग, ज्ञातसूत्र, निरयावलिका आदि आगम साहित्य निर्युक्तियाँ भाष्य, चूर्णि आदि व्याख्या - साहित्य, प्रभावक चरित्र, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पउमचरियं आदि चरित्रग्रंथ, पुराण - साहित्य, कथा-साहित्य, विविध गच्छों से सम्बन्धित पट्टावलियों, For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण प्रशस्ति ग्रंथों, हस्तलिखित ग्रंथों, जैन शिलालेख एवं अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों में यत्र-तत्र बिखरे श्रमणियों के इतिहास को संग्रहित कर कालक्रमानुसार व्यवस्थित करने के इस प्रयास में सैंकड़ों ही नहीं, हजारों श्रमणियों की जानकारी प्राप्त होती है। कला व स्थापत्य में श्रमणी-दर्शन : सर्वप्रथम कला और स्थापत्य को ही लें तो ईसा की प्रथम शताब्दी से बीसवीं शताब्दी तक विभिन्न स्थलों से सम्बन्धित अनेक दुर्लभ चित्र श्रमणियों के प्राप्त होते हैं इनमें प्रतिमा चित्र विशेषतः मथुरा, देवगढ़ (उत्तरप्रदेश), पाटण, सूरत, मातर एवं भद्रेश्वर तीर्थ से उपलब्ध हुए हैं। कुछ चित्र साराभाई मणिलाल नवाब अहमदाबाद से प्रकाशित 'जैन चित्र कल्पलता' में भी अंकित हैं। सुश्रावक गुलाबचंद जी लोढ़ा चीराखाना दिल्ली के संग्रह में विज्ञप्ति पत्रों में भी श्रमणियों के कुछ चित्र हैं। दिल्ली जैन श्वेताम्बर मन्दिर की दीवारों व छतों पर उकेरित मुस्लिम काल के भी कुछ चित्र श्रमणियों के हैं। चित्तौड़ किले पर आचार्य हरिभद्रसूरि के समाधि मन्दिर की मूर्ति के मस्तक भाग पर महत्तरा साध्वी याकिनी का चित्र For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, यह प्रतिमा यद्यपि इक्कीसवीं सदी की है, किन्तु एक जैनाचार्य के हृदय में अपनी गुरूमाता साध्वी के लिए कितना आदर व सम्मान का स्थान था, यह उस प्रतिमा से प्रकट होता है । भद्रेश्वर तीर्थ में जो हाल में ही साध्वी प्रतिमा उत्खनन से प्राप्त हुई और उसका चित्र आचार्य शीलचन्द्रसूरि जी ने 'अनुसंधान' पत्रिका के मुखपृष्ठ पर अंकित किया है, यह चौदहवीं शताब्दी की दुर्लभ भव्य प्रतिमा है का चित्र हमें उपाध्याय भुवनचन्द्र जी महाराज से प्राप्त हुआ है। शहजादराय रिसर्च इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी बड़ौत में संग्रहित हस्तलिखित प्रतियों से भी कुछ प्राचीन चित्र हमें मिले हैं। प्रागैतिहासिक काल : प्रागेतिहासिक काल में भगवान ऋषभदेव की सुपुत्रियाँ भगवती ब्राह्मी और सुन्दरी ने श्रमणी संघ की नींव डाली, उनकी उर्वर मेधा से आज विश्व की सम्पूर्ण वर्ण रूप और अंक रूप विद्याएँ पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। इन युगल श्रमणियों के योगदान से मात्र जैन संस्कृति ही नहीं विश्व संस्कृति भी चिरऋणी रहेगी। तीर्थंकर अजितनाथ के समय सुलक्षणा ने शुद्ध 3 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण सम्यक्त्व की प्रेरणा देकर अपने पति शुद्धभट्ट के साथ संयम अंगीकार किया। तीर्थंकर मल्लिनाथ ने श्रमणी पर्याय में तीर्थंकर पद पर आरूढ़ होकर शाश्वत सत्य को 'अछेरा' बना दिया था। साध्वी राजीमती ने अपने देवर रथनेमि को कर्त्तव्य बोध का सुन्दर पाठ पढ़ाकर आत्म साधना में स्थिर किया था। साध्वी मदनरेखा ने युद्ध स्थल पर पहुँच कर प्रेम एवं मैत्री का निर्नाद किया, पोटिला ने अथक प्रयत्न करके अपने पति को धर्म के सन्मुख किया। रानी कमलावती ने भोगों का ऐसा दारूण चित्र अपने पति ईषुकार के समक्ष चित्रित किया कि राजा भोगों से उपरत होकर दीक्षित हो गया। इसी प्रकार कथा साहित्य में आरामशोभा, कनकमाला कुबेरदत्ता, कलावती, गुणसुन्दरी, भुवनसुन्दरी, मैनासुन्दरी, ऋषिदत्ता, रोहिणी, विजया, सुतारा, श्रीमती, सुरसुन्दरी आदि सैंकड़ों शीलवती सन्नारियों के वर्णन है, जिन्होंने अपने अप्रतिम शौर्य एवं अनुपम बुद्धि चातुर्य का परिचय देकर अन्त में संयम साधना कर जैन शासन की महती प्रभावना की थी। ऐसी आगम व आगमिक व्याख्या-साहित्य तथा पुराण एवं कथा-साहित्य से कुल 360 श्रमणियों का विशिष्ट परिचय उपलब्ध हुआ है। . For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण महावीर और महावीरोत्तरकाल : महावीर युग में वर्तमान श्रमणी परम्परा की सूत्रधार आर्या चंदनबालाजी एक बृहत् श्रमणी संघ की संचालिका थी। धर्म की धुरा का संवहन करने में उसने गौतम आदि 11 गणधरों के समान ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसी प्रकार शान्ति की सूत्रधार मृगावती, तत्त्वशोधिका जयंति, अनुराग से विराग का दीप जलाने वाली देवानन्दा, अचल श्रद्धा की प्रतीक सुलसा, तपस्या के प्राञ्जल कोष की स्वामिनी काली आदि रानियों की यशोगाथाएँ भी इसमें वर्णित हैं। महावीरोत्तरकाल में जम्बूकुमार के साथ अपने अविचल प्रेम का निर्वहन करने वाली समुद्रश्री आदि आठ श्रेष्ठी कन्याएँ भोग योग्य युवावस्था में सुख सुविधाओं को ठुकराकर अद्वितीय अनुपम आदर्श उपस्थित करती हैं। तप-संयम की उत्कृष्ट आराधना कर भगवद् पद को प्राप्त करने वाली पुष्पचूला अपने ही बोध प्रदाता गुरू आचार्य अन्निकापुत्र की मार्गदृष्टा बनती है। अद्वितीय प्रतिभा की धनी, श्रुतसम्पन्ना यक्षा यक्षदत्ता आदि सात साध्वी भगिनियाँ आर्य महागिरि. और आर्य सुहस्ति जैसी महान हस्तियों को अपने ज्ञान निर्झर से सिंचित कर जिनशासन को अर्पित करती हैं। आर्या - 5 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण पोइणी श्रुतरक्षा एवं संघहित हेतु अपने विशाल साध्वी समुदाय के साथ कुमारगिरि पर आयोजित श्रमण सम्मेलन में उपस्थिति प्रदान करती है। रूद्रसोमा अपने पुत्र आर्यरक्षित को पूर्वो का अध्ययन करने के बहाने संयम पथ पर आरूढ़ करवाती है। ईश्वरी संकटकाल से प्रेरणा लेकर सम्पूर्ण परिवार में विरक्ति की भावनाएँ जागृत करती है। याकिनी महत्तरा जैन धर्म के कट्टर विद्वेषी विद्वान् हरिभद्र को अपनी व्यवहार कुशलता और अद्भुत प्रज्ञा से जैनधर्म में जोड़ती है। पाहिनी गुरू के वचनों को श्रवण कर पाँच वर्ष के नन्हें पुत्र को गुरू चरणों में समर्पित कर देती है, वही राजा कुमारपाल का प्रतिबोधक एवं कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के नाम से ख्याति को प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त गण, कुल शाखा से अनुबद्ध वीर निर्वाण 527 से 927 तक की उन श्रमणियों के भी उल्लेख प्राप्त होते है जो विशेषतः मथुरा के मंदिरों, वहाँ की मूर्तियों की प्रेरणादात्री रही हैं। दिगंबर-परम्परा : जैनधर्म में दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा का भेद स्पष्ट रूप से वी.नि. 609 के लगभग प्रगट हुआ माना For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण जाता है। सर्वप्रथम इस परम्परा में संवत् 757 से पन्द्रहवीं सदी तक कर्नाटक प्रान्त में हुई, उन अमरत्व की पूज्य प्रतिमाओं की जानकारी मिलती है, जिन्होंने श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर महान संलेखना व्रत अंगीकार कर अपने आत्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया था, तथा आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक हुई उन कुरत्तिगल भट्टारिकाओं का भी इतिहास प्राप्त हुआ है, जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने संघ का नेतृत्त्व किया था। इन श्रमणियों ने बड़े बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर वहाँ उच्चकोटि के जैन धर्म व दर्शन के विद्वान् पंडित तैयार किये, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर धर्म का प्रचार करते थे। ___ इसी प्रकार विक्रमी संवत् ग्यारहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक अनेक श्रमणियाँ हुई जिनके सक्रिय धार्मिक सहयोग एवं प्रेरणा से देवगढ़ (उत्तरप्रदेश) की मूर्तियाँ एवं मन्दिर निर्मित हुए। वहाँ के एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में अंकित है। विक्रम की उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों के कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होते। इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पुनः इस परम्परा की For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण आर्यिका श्री चन्द्रमती जी का नाम सर्वप्रथम जानने को मिलता है, वे 101 वर्ष की आयु पूर्ण कर दिल्ली में स्वर्गवासिनी हुई। इनके पश्चात् घोर तपस्विनी श्री धर्ममती माताजी, सम्पूर्ण रसों की आजीवन प्रत्याख्यानी श्री वीरमती जी, अनेकों मुनि आर्यिका ऐलक क्षुल्लक व ब्रह्मचारियों की निर्मातृ विदुषी श्री इन्दुमती जी हुई। वर्तमान में दिगम्बर संघ की सर्वप्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका गणिनी श्री ज्ञानमती जी हैं, इन्होंने बड़े-बड़े आचार्यों की टक्कर के गूढ दार्शनिक ग्रंथों का प्रणयन किया, ऐसे 150 से भी अधिक ग्रंथों की रचना कर ये साहित्यकी के रूप में प्रतिष्ठित हुई। आर्यिका सुपार्श्वमती जी जिनकी ज्ञान-निर्जरित लेखनी से बीसियों ग्रंथ प्रस्फुटित हुए। प्रत्येक क्षेत्र में विद्वत्ता को प्राप्त ये धर्म व शासन को चार चाँद लगाने वाली हुईं। गणिनी विजयमती जी इक्कीसवीं शताब्दी की सर्वप्रथम गणिनी, बहुभाषाविद्, अनेक धर्म संस्थाओं की प्रेरिका एवं विपुल साहित्यकी विशिष्ट संयमी साध्वी हैं। इसी प्रकार दर्शनशास्त्र की प्रकाण्ड पंडिता श्री जिनमती जी, दुर्गम ग्रन्थों की टीकाकर्ती, ज्ञान की अनुपम निधि श्री विशुद्धमती जी, इक्कीसवीं सदी की प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी गणिनी एवं सर्वाधिक दीक्षा For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण प्रदातृ श्री विशुद्धमती जी, कठोर साधिका आर्यिका श्री अनन्तमती जी, क्षुल्लिका श्री अजितमती जी, कवयित्री लेखिका तपस्विनी क्षुल्लिका श्री चन्द्रमती जी, जिनमती जी आदि ज्योतिर्पञ्ज महान आर्यिकाएँ दिगम्बर-परम्परा में हुई हैं। श्वेताम्बर परम्परा : जैनधर्म की श्वेताम्बर परम्परा अपने अस्तित्त्वकाल से ही अति विस्तृत समृद्ध और परिष्कृत परम्परा रही है। इस परम्परा में खरतरगच्छ का इतिहास विक्रमी संवत् 1080 से प्रारम्भ होकर अद्यतन गतिमान है। वर्तमान में इस गच्छ की श्रमणियों की संख्या 240 है। तपागच्छ का उदयकाल विक्रम की तेरहवीं सदी है, वहाँ से प्रारम्भ होकर वि. सं. 1791 तक यह परम्परा प्राप्त होती है, उसके पश्चात् डेढ़ सौ-दोसौ वर्षों की अवधि के बाद संवत् 1926 से पुनः इस गच्छ की श्रमणियों का इतिहास वर्तमान तक अनेक समुदायों में विभक्त आचार्यों के नेतृत्त्व में बरसाती नदी के समान विशुद्ध रूप से प्रवहमान है। विशेष रूप से आचार्य आनन्दसागरसूरीश्वर, विजय प्रेमरामचंद्रसूरीश्वर, विजय प्रेम भुवन भानुसूरीश्वर, विजय जितेन्द्रसूरीश्वर, विजय . 9 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण कलापूर्णसूरीश्वर, विजय नेमीसूरीश्वर, विजय नीतिसूरीश्वर विजय सिद्धिसूरीश्वर ( बापजी), विजय वल्लभसूरीश्वर, विजय मोहनसूरीश्वर, विजय रामसूरीश्वर (डहेलावाला), विजय बुद्धिसागर सूरीश्वर, विजय हिमाचलसूरीश्वर, विजय शांतिचन्द्रसूरीश्वर विजय अमृतसूरीश्वर, आचार्य मोहनलाल जी महाराज विमलगच्छ, सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय की श्रमणियों से यह गच्छ शोभायमान हो रहा है। ईस्वी सन् 2005 की गणनानुसार इन श्रमणियों की कुल संख्या 5784 है। " अंचलगच्छ का अभ्युदयं काल विक्रमी संवत् 1146-1778 एवं उसके पश्चात् संवत् 1955 से अद्यतन चल रहा है। उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ विक्रम की तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक के काल की ही प्राप्त होती है। उसके पश्चात् यह परम्परा अन्य गच्छों में विलीन हो गई, आज इस गच्छ का प्रतिनिधित्व करने वाली एक भी श्रमणी या श्रमण नहीं है। इसी प्रकार आगमिक गच्छ का सितारा भी तेरहवीं से सत्रहवीं सदी तक ही चमकता दिखाई देता है । तपागच्छ की ही एक शाखा पार्श्वचन्द्रगच्छ है, इसका उदय सवंत् 1564 में माना जाता है, किन्तु इस शाखा के 10 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण साधु-साध्वी आज भी अच्छी संख्या में विद्यमान है। सन् 2005 में इन श्रमणियों की संख्या 58 थी। कुल मिलाकर सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की श्रमणियाँ वर्तमान में 6322 है। श्वेताम्बर-परम्परा में गणिनी प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त हुई अनेक विदुषी श्रमणियाँ हैं। संवत् 1477 में गुणसमृद्धिमहत्तरा ने 'अंजणासुंदरीचरियं' 503 पद्यों में रचकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया था, ये प्राकृतभाषा की एकमात्र लेखिका है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ से गूढ तत्त्वज्ञान को सुबोध सुमधुर शैली में व्याख्यायित करने की उसकी कला एवं वैराग्य रंग से रंजित सदुपदेशों से आकृष्ट होकर अल्प समय में 700 नारियाँ दीक्षित हुई। मातर तीर्थ में प्रतिष्ठित उनकी प्रतिमा का चित्र अध्याय एक में दिया गया है। इसी प्रकार पन्द्रहवीं सदी में धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर स्तुति की है। बीसवीं सदी में खरतरगच्छीय श्री उद्योतश्री जी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई 11 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण थी। प्रवर्तिनी पुण्यश्री जी के वैराग्य रस से ओतप्रोत उपदेशों से 116 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुईं। प्रवर्तिनी शिवश्री जी, प्रेमश्री जी, ज्ञानश्री जी, वल्लभश्री जी ने संघमें विशिष्ट स्थान प्राप्त किया था। जैन कोकिला परम समाधिवंत प्रवर्तिनी विचक्षणश्री जी, महनीय गुणों से सुशोभित श्री मनोहरश्री जी बहुआयामी प्रतिभा की धनी श्री सज्जनश्री जी, जैन द्रव्यानुयोग की विशिष्ट अध्येत्री, अनेक संस्थाओं की प्रेरिका मणिप्रभाश्री जी आदि खरतरगच्छ की विशिष्ट साध्वियाँ हैं। तपागच्छ में प्रवर्तिनी शिवश्री जी, तिलकश्री जी, तीर्थश्री जी, पुष्पाश्री जी, रेवतीश्री जी, राजेन्द्रश्री जी, मृगेन्द्र श्री जी, निरंजनाश्री जी, मलयाश्री जी आदि विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका महाश्रमणियाँ हुईं। विशिष्ट तपाराधना के साथ वर्धमान तप की 100 ओली पूर्ण करने वाली श्रमणियों में श्री तीर्थश्री जी, श्री धर्मोदयाश्री जी, श्री सुशीलाश्री जी, श्री अरूजाश्री जी, श्री निरूपमाश्री जी, श्री रेवतीश्री जी, श्री रोहिताश्री जी, श्री कल्पबोधश्री जी, श्री प्रियधर्माश्री जी, श्री धर्मविद्याश्री जी, श्री धर्मयशाश्री जी, श्री इन्द्रियदमा श्री जी, श्री हर्षितवदनाश्री जी, श्री जितेन्द्र श्री जी, श्री महायशाश्री जी आदि संख्याबद्ध श्रमणियाँ हैं। श्री 12 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण मोक्षज्ञाश्री जी, श्री चिद्वर्षाश्री जी आदि कुछ साध्वियाँ तो तप की जीती जागती प्रतिमा ही नजर आती हैं। श्री रंजनाश्री जी महान शासन प्रभाविका साध्वी हैं, इन्होंने सम्मेदशिखर जैसे विशाल तीर्थ का जीर्णोद्धार कर अपना नाम अमर कर दिया, तीर्थ स्थान पर इनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई हैं। साहित्यिक क्षेत्र में अपना प्रशंसनीय योगदान देने वाली सूर्य शिशु श्री मयणाश्री जी एवं इनकी तीन शिष्याएँ विशुद्ध प्रज्ञा सम्पन्न शतावधानी श्रमणियाँ हैं । इसी प्रकार मासक्षमण आराधिका 27 शिष्याओं की गुरूमाता श्री त्रिलोचना श्री जी, आशु कवयित्री प्रवर्तिनी श्री लक्ष्मीश्री जी, प्रकृष्ट तपस्विनी श्री देवेन्द्र श्री जी, संस्कृत प्राकृत काव्य न्याय व्याकरण आदि की ज्ञाता विदुषी निरंजनाश्री जी साहस व संकल्प की धनी प्रवर्तिनी रोहिणा श्री जी, महान धर्म प्रभाविका प्रवर्तिनी श्री बसन्तप्रभाश्री जी, श्री सौभाग्यश्री जी, प्रखरबुद्धि सम्पन्ना शतावधानी डॉ. श्री निर्मला श्री जी आदि तपागच्छ की महान विदुषी श्रमणियाँ हैं। तपागच्छ की ही प्रवर्तिनी देवश्री जी पंजाब की धरती पर दीक्षित होने वाली सर्वप्रथम श्रमणी एवं विशाल गच्छ की अधिनायिका थीं। पाकिस्तान से भारत आने वाली जैन समाज पर इनका उपकार 13 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण चिरस्मरणीय है । महत्तरा श्री मृगावती श्री जी अपनी विचक्षणता विदग्धता, तेजस्विता, नवयुग निर्माण की क्षमता और उदार दृष्टिकोण से भारत भर में विख्यात हुईं। काँगड़ा तीर्थ का उद्धार इनके ही प्रयत्नों का सुफल है। श्री जसवन्तश्री जी, पद्मलताश्री जी आदि महासाध्वियों ने पंजाब में घूम-घूम कर धर्म का खूब प्रचार-प्रसार किया। तपागच्छ की श्रमणियों में प्रवर्तिनी श्री कल्याणश्री जी का जैन समाज को संस्कारित करने में महान अनुदान रहा है। इनके सदुपदेशों से प्रेरित होकर अकेले 'डभोई' ग्राम में 60-65 मुमुक्षु आत्माएँ दीक्षित हुई। श्री दमयंतीश्री जी ने तपसाधिका के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, इनके तपोमय जीवन के आँकड़े आश्चर्यचकित करने वाले हैं। आचार्य विजयरामसूरि जी डहेलावाला के समुदाय में श्री दर्शन श्री जी, श्री जयंति श्री जी, श्री कनकप्रभाश्री जी, श्री चन्द्रकलाश्री जी आदि तपोपूत महान श्रमणियाँ हैं। आचार्य विजयलब्धिसूरि जी के समुदाय की श्री रत्नचूलाश्री जी अपने विशाल श्रमणी संघ में 'सरस्वती सुता' के नाम से प्रख्यात साध्वी रत्न हैं। इन्हीं की भगिनी वाचंयमाश्री जी प्रखर बुद्धिसम्पन्न, कुशल संघ संचालिका है। 14 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण श्री भक्तिसूरीश्वर जी के समुदाय में श्री जयश्री जी धर्मप्रभाविका साध्वी थी, ये 88 शिष्या प्रशिष्याओं की संयमदात्री रहीं। इसी समुदाय की श्री हर्षलताश्री जी ने अपने ही परिवार के 45 स्वजनों को संयम पथ पर आरूढ़ करके जैन संघ को बड़ा भारी अनुदान दिया। श्री विजयकेसरसूरि जी के समुदाय में प्रवर्तिनी श्री सौभाग्यश्री जी, प्रवर्तिनी श्री नेमश्री जी, श्री विनयश्री जी, श्री त्रिलोचनाश्री जी गहन ज्ञान की धारक एवं विशाल श्रमणी परिवार का नेतृत्त्व करने में कुशल थी। प्रवर्तिनी श्री मनोहरश्री जी कठोर संयमी थीं। श्री विबोधश्री जी शासन की विविध प्रकार से उन्नति करने में अग्रणी गणनीय साध्वी हैं। तपागच्छ के विजय हिमाचलसूरि जी, विजय शांतिचन्द्रसूरि जी, विजय अमृतसूरिजी, आचार्य मोहनलालजी महाराज एवं विमलगच्छ आदि के समुदाय में भी अनेक विशिष्ट साध्वियां मौजूद है। त्रिस्तुतिक-साध्वी समुदाय में विद्याश्री जी प्रथम महत्तरा साध्वी के रूपमें प्रतिष्ठित हुई हैं। इनकी शिष्याएँ डॉ. प्रियदर्शनाश्री जी और डॉ. सुदर्शनाश्री जी विदुषी साध्वियाँ हैं। इनके अतिरिक्त वर्तमान में इस समुदाय में 178 श्रमणियाँ हैं। पार्श्वचन्द्रगच्छ में प्रवर्तिनी 15 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण श्री खांति श्री जी विशाल साध्वी समुदाय की सृजनकत्री और अनेकों की उद्धारकर्त्री थी। श्री सुनन्दाश्री जी ने जैनधर्म की गरिमा में अभिवृद्धि करने वाले अनेक कार्य किये। श्री बसन्तप्रभा जी अच्छी कवयित्री विदुषी साध्वी थीं, सुमंगलाश्री जी पंडित महाराज के नाम से प्रसिद्ध थी। विक्रमी संवत् 1564 से प्रवहमान इस गच्छ की 85 श्रमणियों का परिचय हमें उपलब्ध हुआ। चन्द्रकुल से निष्पन्न अंचलगच्छ में सोमाई नामक साध्वी ने एक करोड़ मूल्य के स्वर्णाभूषणों का परित्याग कर संवत् 1146 में दीक्षा अंगीकार की थी, इनके पश्चात् छंद व साहित्य की ज्ञाता प्रवर्तिनी मेरुलक्ष्मी हुई, वर्तमान में श्री जगत श्री जी का विशाल शिष्या परिवार है । इस गच्छ की साध्वी गुणोदया श्री जी अद्भुत समताभावी व करूणा की देवी हैं। श्री अरूणोदया श्री जी, श्री विनयश्री जी दृढ़ मनोबली तपोमूर्ति श्रमणियाँ हैं। ऐसी हजारों श्रमणियाँ इस गच्छ में हुई। वर्तमान में भी 239 श्रमणियाँ हैं। हमें केवल 203 श्रमणियों का सामान्य परिचय उपलब्ध हुआ है। उपकेशगच्छ में यद्यपि श्रमणियों का स्वतन्त्र उल्लेख इतिहास ग्रंथों में उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अनेक शासन प्रभावक आचार्यों के इतिवृत्त में उनकी माता, 16 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण पत्नी, भंगिनी आदि के रूप में कुछ नाम उपलब्ध हुए है । आगमिक गच्छ जो विक्रम की तेरहवीं सदी से सत्रहवीं शताब्दी तक रहा, उसकी मात्र 4 श्रमणियों की ही जानकारी प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा की सैंकड़ों ऐसी श्रमणियाँ हैं, जिन्होंने ताड़पत्र, भोजपत्र अथवा कागज पर प्राचीन ग्रंथों को लिखने का कार्य किया । या विद्वानों से लिखवाकर योग्य श्रमण श्रमणियों को स्वाध्याय हेतु अर्पित किया, उनसे सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्रशस्ति-ग्रंथों और पांडुलिपियों में प्राप्त होते हैं, ऐसी संवत् 1175 से 1928 तक के काल की श्रमणियों का वर्णन उपलब्ध होता है। स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से माना जाता है। उस काल में लुंकागच्छ की कतिपय श्रमणियों के नाम संवत् 1615 से 1880 तक की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त होते हैं। स्थानकवासी परम्परा लोंकागच्छीय यति परम्परा से निकलकर क्रियोद्धार करने वाले छः महान आचार्यो की परम्परा का सम्मिलित रूप है। वे छ: आचार्य हैंआचार्य जीवराज जी, आचार्य लवजीऋषि जी, आचार्य हरिदास जी, आचार्य धर्मसिंह जी, आचार्य धर्मदास जी 17 For Personal & Private Use Only : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण और आचार्य हरजी स्वामी। उक्त सभी आचायों का काल विक्रम की सत्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी का है, किन्तु इनकी श्रमणी-परंपरा का काल प्रायः अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से ही उपलब्ध होता है। आचार्य श्री जीवराज जी की परम्परा के आचार्य अमरसिंह जी महाराज की परम्परा में अद्यतन 1200 के लगभग श्रमणियों के दीक्षित होने की सूचना प्राप्त होती है, इनकी आद्या साध्वी श्री भागांजी, सद्दांजी थीं, इनका समय संवत् 1810 का है। ये महान विदुषी शास्त्रज्ञा एवं तपस्विनी थीं। प्रवर्तिनी श्री सोहनकंवर जी आगमज्ञान की गहन ज्ञाता, तपस्विनी, सेवामूर्ति व चंदनबाला श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी थी। श्री शीलवती जी श्री कुसुमवतीजी अनेक धर्मिक संस्थाओं की प्रेरिका, कठोर संयमी महासती थी। श्री पुष्पवतीजी बहुमुखी प्रतिभा की धनी, साहित्यकी साध्वी तथा अनेक श्रमण-श्रमणियों की उद्बोधिका हैं। श्री जीवराजजी महाराज की नानक राम जी म. की परम्परा में डॉ. ज्ञानलता जी, डॉ. दर्शनलता जी, डॉ. चारित्रलता जी, डॉ. कमलप्रभा जी आदि जैन जैनेत्तर दर्शन की उच्चकोटि की विद्वान साध्वियाँ हैं। जीवराज जी की श्री शीतलदास जी महाराज की 18 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण परम्परा में प्रवर्तिनी श्री यशकंवर जी मेवाड़सिंहनी के नाम से प्रख्यात हैं। जोगणिया माता पर होने वाली बलिप्रथा को बंद करवाने का अभूतपूर्व कार्य आपने ही किया था। क्रियोद्धारक श्री लवजी ऋषि जी की महाराष्ट्र परम्परा में संवत् 1810 में विद्यमान शांत स्वभावी राधा जी के नाम का उल्लेख है। इनके शिष्या परिवार में प्रवर्तिनी श्री कुशलकंवरजी ने अनेक स्थानों के नरेशों को व्यसन मुक्त करवाया था। श्री सिरेकंवरजी आत्मार्थिनी साध्वी थी, गुरूजनों के प्रति अविनयसूचक शब्दों का उच्चारण हो जाने पर तत्काल दो उपवास का प्रत्याख्यान कर लेती थी। श्री बड़े सुन्दरजी को आचार्य आनन्दऋषि जी महाराज अपनी शिक्षा प्रदाता गुरूणी कहकर आदर देते थे। प्रवर्तिनी रतनकंवर जी ने राजा चतरसेनजी द्वारा दशहरे के दिन होने वाली भैंसे की बलि को बंद करवाया था तथा अनेक ग्रामों के नरेशों को माँस मदिरा का त्याग करवाया था। श्री आनन्दकंवर जी ने सर्प के विष को महामंत्र के प्रभाव से दूर कर लोगों को जैन धर्म के प्रति आस्थावान बनाया था। प्रवर्तिनी श्री उज्ज्वलकुमारी जी से चर्चा वार्ता कर महात्मा गाँधीजी असीम शांति व आनन्द का .19 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण अनुभव करते थे, इनकी विद्वत्ता और विषय निरूपण शैली अद्वितीय थी। श्री सुमतिकंवर जी ने महिला समाज की जागृति व उन्नति के अनेक प्रशंसनीय कार्य किये। प्रवर्तिनी श्री प्रमोदसुधा जी समयज्ञा और योग्य सलाहकार विदुषी साध्वी थीं, उन्हें भारतमाता की पदवी से विभूषित किया गया था। आचार्या चंदना जी राजगृही वीरायतन में रहकर अनेक लोकमंगलकारी एवं मानव सेवा के कार्य कर रही हैं, ये एक स्वतन्त्र संघ की संचालिका है। डॉ. धर्मशीला जी सम्पूर्ण जैन समाज की सर्वप्रथम पी. एच. डी. डिग्री प्राप्त धर्मप्रभाविका साध्वी हैं। डॉ. मुक्तिप्रभा जी डॉ. दिव्यप्रभा जी जैनधर्म व दर्शन के गूढ़ रहस्यों की अनुसंधातृ एवं द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग की व्याख्याता है। वाणीभूषण श्री प्रीतिसुधाजी अपनी सधी हुई सुमधुर वाणी से हजारों की संख्या में जन समाज को व्यसनमुक्त कराने और कसाइयों के हाथों से पशुओं को छुड़वाकर गोरक्षण संस्थाएँ स्थापित कराने की सार्थक भूमिका निभा रही हैं। इसी प्रकार डॉ. ज्ञानप्रभा जी, श्री सुशील - कंवर जी, श्री कुशलकंवर जी, श्री किरणप्रभा जी, श्री आदर्शज्योतिजी, श्री नूतनप्रभा जी, श्री त्रिशलाकंवरजी आदि ऋषि सम्प्रदाय की सैंकड़ों विदुषी श्रमणियाँ हैं, जिनमें परिचय प्राप्त 210 गूढ़ 20 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण श्रमणियाँ हमारे शोध प्रबन्ध में निबद्ध हुई हैं। ऋषि पम्प्रदाय की एक शाखा गुजरात में 'खम्भात सम्प्रदाय' के नाम से चल रही है इसमें श्री शारदाबाई विनय, विवेक की प्रतिमूर्ति, आगमज्ञा, सरल गम्भीर निडर वक्ता एवं खम्भात सम्प्रदाय में श्रमणों की विच्छिन्न कड़ी को जोड़ने वाली साध्वी थीं, इनके नाम से प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। क्रियोद्धारक पूज्य हरिदास जी महाराज के पंजाबी समुदाय में श्रमणी संघ का आरम्भ उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर विक्रमी संवत् 1730 के लगभग महासती श्री खेतांजी से होता है। इनकी परम्परा में श्री वगतांजी निर्मल मतिज्ञान धारिणी थी । आहार की शुद्धता, अशुद्धता का ज्ञान वे देखते ही कर लेती थीं। सीतांजी द्वारा 5000 लोगों ने माँस मदिरा का त्याग किया था, श्री खेमांजी ने 250 जोड़ों को आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत प्रदान कराया था। श्री ज्ञानांजी ने विच्छिन्न साधु - परम्परा की कड़ी को जोड़ने का अद्भुत कार्य किया। आचार्य अमरसिंह जी महाराज और आचार्य सोहनलाल जी महाराज जैसी महान हस्तियाँ जैन समाज को महासती श्री शेरांजी से प्राप्त हुई थीं। श्री गंगीदेवी जी बीसवीं सदी के प्रारम्भ की अत्यन्त धैर्यवान चारित्रवान श्रमणी थी। 21 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण . पंजाब श्रमणी संघ की प्रथम प्रवर्तिनी श्री पार्वती जी महाराज हिन्दी साहित्य की प्रथम जैन साध्वी लेखिका हुई हैं। अनेक अन्य मतानुयायी पंडित उनसे शास्त्रार्थ कर धर्म के सत्य सिद्धान्तों पर आस्थावान बने थे। श्री चंदाजी महाराज, श्री द्रौपदांजी महाराज, श्री मथुरादेवी जी महाराज, श्री मोहनदेवी जी महाराज प्रभावशाली प्रवचनकर्ती थीं, उन्होंने समाज की अनेक कुरीतियाँ बंद करवाकर स्थान-स्थान पर धार्मिक सत्संग प्रारम्भ करवाये थे। प्रवर्तिनी श्री राजमती जी, श्री पन्नादेवी जी (टुहाना वाले) हमारी गुरुणीजी महाश्रमणी श्री कौशल्यादेवी जी आदि परम सहिष्णु, समता की साक्षात् मूर्ति, आत्मनिष्ठ श्रमणियाँ थीं। श्री मोहनमाला जी, श्री शुभ जी, श्री हेमकंवर जी ने क्रमशः 311, 265 और 251 दिन सर्वथा निराहार रहकर विश्व में जैन श्रमण संस्कृति का गौरव निनाद किया। इनके अतिरिक्त कंठ कोकिला श्री सीता जी, परम शुचिमना श्री पन्नादेवी जी, वात्सल्यनिधि श्री कौशल्या जी 'श्रमणी', दृढ़ संयमी श्री मगनश्री जी, सर्वदा ऊर्जस्वित व्यक्तित्त्व कृतित्व संपन्ना श्री स्वर्णकान्ता जी, गद्य-पद्य में समान कलम की धनी श्री हुक्मदेवी जी, अध्यात्मनिष्ठ श्री सुन्दरी जी, प्रबल स्मृति धारिणी, सुदूर विहारिणी 22 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण प्रवर्तिनी श्री केसरदेवी जी, प्रभाव-सम्पन्ना श्री कैलाशवती जी, व्यवहार कुशल श्री पवनकुमारी जी, शासन प्रभाविका श्री शशिकान्ता जी आदि पंजाब की इन विशिष्ट साध्वियों ने समाज व देश के उत्थान में जो सक्रिय कार्य किये वे स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य हैं। इन सबका वैदुष्य से भरपूर शिष्या परिवार भी इन्हीं के लक्ष्य कदमों पर चल रहा है। आचार्य धर्मसिंह जी महाराज के क्रियोद्धार का समय विक्रमी संवत् 1685 है। इनकी समूची परम्परा आठ कोटि दरियापुरी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि यह परम्परा एक क्षीणतोया नदी की धारा के समान गुजरात में ही प्रवाहित है किन्तु इस संघ की उल्लेखनीय विशेषता है कि आज 386 वर्षों की सुदीर्घ अवधि के पश्चात् भी एक आचार्य के नेतृत्व में गतिशील है। इस सम्प्रदाय की साध्वियों के उल्लेख संवत् 1961 से प्राप्त होते हैं। संवत् 1961 में नाथीबाई आगमज्ञाता मारणान्तिक उपसर्गों में भी समताभाव रखने वाली साध्वी हुई थी। इन्होंने समाज में धर्म के नाम पर चल रहे अनेक आडम्बरों को दूर करवाया। सूर्यमंडल की अग्रणी श्री केसरबाई भद्र प्रकृति की समतावार निर्मल हृदया साध्वी थी। श्री ताराबाई सरल, 23 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण सौम्य, वाणी वर्तन में एकरूप और अविरत स्वाध्यायशीला थी। श्री हीराबाई मधुरकंठी तपस्विनी प्रभावका प्रवचनकी थी। श्री वसुमती बाई प्रतिभावंत साध्वी थी। इनके तलस्पर्शी, विचार सभर गम्भीर आशय वाले प्रवचनों की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। बम्बई में एक बार 51 जोड़ों ने इनसे ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण किया था। दरियापुरी सम्प्रदाय की वर्तमान 112 साध्वियाँ हैं। अपने शोध-ग्रंथ में हमने संवत् 1961 से संवत् 2060 तक की 163 श्रमणियों के परिचय और योगदान का उल्लेख किया है। ___क्रियोद्धारक श्री धर्मदास जी महाराज की परम्परा गुजरात, मालवा, मारवाड़, मेवाड़ आदि भारत के प्रायः सभी देशों में विस्तार को प्राप्त हुई हैं। गुजरातपरम्परा की श्रमणियों का इतिवृत्त संवत् 1718 से उपलब्ध होता है। यह परम्परा गुजरात, सौराष्ट्र, कच्छ में अनेक शाखाओं में विभक्त हुई। लिंबडी अजरामर सम्प्रदाय में बहुश्रुता एवं शत शिष्याओं की प्रमुखा श्री वेलबाई स्वामी श्री उज्ज्वल कुमारी जी आदि हुई। लिंबड़ी गोपाल सम्प्रदाय में सौराष्ट्र सिंहनी श्री लीलावती बाई 145 साध्वियों की कुशल संचालिका थी, इनके प्रवचनों की 'तेतलीपुत्र' आदि कई पुस्तकें हैं। इनकी 24 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण कई मासोपवासी उग्र तपस्विनी आगमज्ञाता साध्वियों में श्री निरूपमाजी हैं, जो बत्तीस शास्त्रों को कंठस्थ कर महावीर युग की प्रत्यक्ष झलक दिखा रही है। गोंडल सम्प्रदाय में श्री मीठीबाई घोर तपस्विनी महाश्रमणी थी । वर्तमान में प्राणकुंवरबाई, मुक्ताबाई, तरूलताबाई, लीलमबाई, प्रभाबाई, हीराबाई विशाल श्रमणी संघ की संवाहिका आगमज्ञा साध्वियाँ हैं । बरवाला सम्प्रदाय में जवेरीबाई उग्र तपस्विनी साध्वी थी। बोटाद सम्प्रदाय में चम्पाबाई, मंजुलाबाई, कच्छ आठ कोटि मोटा संघ में श्री मीठीबाई, श्री जेतबाई, कच्छ नानीपक्ष में देवकुंवरबाई आदि दृढ़ संयम निष्ठ आत्मार्थिनी श्रमणियाँ हुई। वर्तमान में धर्मदास जी महाराज की गुजरात परम्परा में 726 के लगभग श्रमणियाँ विद्यमान हैं। मालव परम्परा में भी संवत् 1718 से साध्वियों का इतिहास उपलब्ध होता है, जिनके नाम श्री लाडूजी डायाजी आदि हैं। संवत् 1940 में श्री मेनकंवर जी परम वैराग्यवान प्रखर प्रतिभा सम्पन्न साध्वी हुई थीं, उन्होंने भारत के वायसराय एवं सैलाना नरेश आदि राजाओं को अपने प्रवचनों से प्रभावित कर राज्य में अमारि की घोषणा करवाई थी। श्री हीराजी, दौलाजी, प्रवर्तिनी श्री माणककंवर जी प्रवर्तिनी श्री महताबकंवर जी, 25 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण प्रवर्तिनी श्री गुलाबकंवर जी, प्रवर्तिनी श्री सज्जनकंवर जी आदि लोक हृदय में प्रतिष्ठित विद्वान् साध्वियाँ श्रमणी संघ की निधि हैं। ज्ञानगच्छ में श्री नन्दकंवर जी एवं उनका श्रमणी समुदाय जो आज लगभग 450 की संख्या में विचरण कर रहा है, वह अपने उत्कृष्ट संयम एवं आगम ज्ञान के लिए श्रमणी संघ में एक अद्वितीय मिसाल है। ____ मारवाड़ परम्परा में श्री रघुनाथ जी, श्री जयमल जी, श्री कुशलो जी का श्रमणी समुदाय प्रमुख है। इन श्रमणियों का उल्लेख संवत् 1810 से आर्या केशर जी श्री चतरूजी श्री अमरू जी से प्राप्त होता है। संवत् 1851 में इस परम्परा की साध्वी श्री फतेहकंवर जी ने विशाल आगम-साहित्य की दो बार प्रतिलिपि की थी। श्री चौंथाजी ने कई साधु साध्वियों को आगमों में निष्णात बनाया था। श्री सरदारकुंवर जी के द्वारा कई हस्तियाँ संयम मार्ग पर आरूढ़ होकर जिनधर्म की पताका को फहराने वाली बनी। श्री जड़ावांजी श्री भूरसुन्दरी जी की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वानों ने भूरि भूरि प्रशंसा की है। श्री पन्नादेवी जी ने 'कागुंजी भैरूं नाका' पर होने वाले भीषण पशु संहार को बंद करवाया था। मरुधरा साध्वी प्रमुखा प्रवर्तिनी श्री उमरावकंवरजी 26 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण उच्चकोटि की योगसाधिका, मधुर उपदेष्टा एवं चिन्तनशीला साध्वी हैं। रत्नवंश की प्रमुखा साध्वी श्री सरदारकुंवर जी, श्री मैनासुन्दरी जी अपनी ओजस्वी प्रवचनशैली और स्पष्ट विचारधारा के लिये प्रसिद्ध थीं। श्री उम्मेदकंवर जी उत्कृष्ट, त्यागी तपस्विनी आदर्श श्रमणी हैं। इसी परम्परा की और भी कई साध्वियाँ विदुषी डॉक्टरेट व शासन प्रभाविका हैं। ___ मेवाड़ परम्परा में श्री नगीनाजी शास्त्रचर्चा में निपुण महासाध्वी हुईं। इनकी चन्दूजी, इन्द्राजी, कस्तूरां जी, श्री वरदूजी आदि कई शिष्याएँ महातपस्विनी और उग्र अभिग्रहधारी थी। श्री श्रृंगारकुंवर जी निर्भीक स्पष्टवक्ता और समयज्ञा साध्वी थीं। आचार्य श्री एकलिंगदास जी महाराज के पश्चात् मेवाड़ की विश्रृंखलित कड़ियों को इन्होंने ही टूटने से बचाया। श्री प्रेमवती जी राजस्थान सिंहनी के नाम से विख्यात साध्वी थीं, अहिंसा के क्षेत्र में इनका योगदान सराहनीय था। क्रियोद्धारक श्री हरजी ऋषि जी की परम्परा में मुख्य रूप से तीन शाखाएँ विद्यमान हैं, उन्हें कोटा सम्प्रदाय, साधुमार्गी सम्प्रदाय और दिवाकर सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। यद्यपि श्री हरजीऋषि जी के क्रियोद्धार का काल संवत् 1686 के आसपास का है, - 27 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण किन्तु इनके साध्वी सम्प्रदाय का क्रमबद्ध इतिहास संवत् 1910 के लगभग हुई प्रवर्तिनी श्री खेतांजी का मिलता है। कोटा सम्प्रदाय में श्री बड़ाकंवर जी का 52 दिन का संथारा प्रसिद्ध है। जनश्रुति हैं कि संथारे में 52 दिन ही नाग उनके दर्शन करने आता रहा। प्रवर्तिनी श्री मानकंवर जी विदर्भसिंहनी थीं, ये 45 शिष्या प्रशिष्याओं की संयमदात्री थीं। उपप्रवर्तिनी श्री सज्जनकुंवर जी ने डूंगला ग्राम के बाहर नवरात्रि पर होने वाली घोर पशुबलि को अपनी ओजस्वी वाणी से बंद करवाया था। प्रवर्तिनी प्रभाकंवर जी अनेक श्रमण श्रमणियों की संयम प्रेरिका आग्रमज्ञा साध्वी हैं। आचार्य हुक्मीचन्द्र जी महाराज की सम्प्रदाय में श्री रंगूजी विशिष्ट व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी थीं। प्रवर्तिनी श्री रत्नकंवर जी आदर्श त्यागिनी थीं। श्री नानूकंवरजी चातुर्मास के 120 दिन में 5-7 दिन ही आहार ग्रहण करती थीं, उन्होंने दीक्षा के पूर्व कुष्ठ रोग से मृत्यु प्राप्त अपने पति की स्वयं अन्त्येष्टी क्रिया की थी। प्रवर्तिनी श्री आनन्दकंवर जी इतनी करूणामूर्ति थी, कि अपनी जान की परवाह किये बिना जीवदया के अनेक कार्य किये। घोर तपस्विनी श्री बरजूजी ने 82 दिन के उपवास कठोर कायक्लेश करते हुए किये थे। 28 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण श्री मोता जी बृहद् श्रमणी संघ की जीवन निर्मातृ थीं। श्री नानूकंवर जी बहुभाषाविद् व आगम ज्ञान में निष्णात थीं। दिवाकर सम्प्रदाय में श्री साकरकंवर जी, श्री कमलावती जी अत्यन्त विदुषी शास्त्र मर्मज्ञा एवं ओजस्वी वक्ता थी । कृशकाया में अतुल आत्मबल की धनी श्री पानकंवर जी ने 49 दिन के संथारे में जिस प्रकार देहाध्यास का त्याग किया वह अद्भुत था । वर्तमान में डॉ. सुशील जी, डॉ. चन्दना जी, डॉ. मधुबाला जी, श्री सत्यसाधना जी, श्री अर्चना जी आदि धर्म की अपूर्व प्रभावना में संलग्न हैं। लगभग 400-500 वर्षों से अनवरत प्रवहमान उक्त छः क्रियोद्धारकों की परम्परा में आज तक हज़ारों श्रमणियाँ हो चुकी हैं, किन्तु प्रामाणिकता पूर्वक उनकी निश्चित् गणना नहीं हो पाई । सन् 2005 के गणनीय आँकड़ों में इनकी संख्या 2953 आंकी गई हैं, किन्तु कइयों के नाम प्रकाशित सूची में नहीं आ पाये हैं। लगभग तीन हजार श्रमणी - वैभव से सम्पन्न यह सम्प्रदाय आज अधिकांश श्रमण संघ में विलीन है। इनमें गुजराती बृहद् संघ, रत्नवंश, ज्ञानगच्छ, साधुमार्गी, नानकगच्छ और जयमल सम्प्रदाय की कतिपय श्रमणियों के अतिरिक्त सभी सम्प्रदायों की लगभग 29 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण एक सहस्त्र श्रमणियाँ आचार्य शिवमुनि जी और आचार्य उमेशमुनि जी की आज्ञानुवर्तिनी श्रमण संघीय श्रमणियों के रूप में पहचानी जाती हैं। हमने अपने शोध प्रबन्ध में कुल 2348 श्रमणियों के व्यक्तित्त्व कृतित्त्व विषयक योगदानों का उल्लेख किया है। इसमें संवत् 1555 से 1993 तक की वे 219 श्रमणियाँ भी हैं, जिनके उल्लेख हस्तलिखित प्रतियों से प्राप्त हुए। गच्छ या सम्प्रदाय का नामोल्लेख न होने से सम्भव है, इनमें कुछ लुकागच्छीय अथवा कुछ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की श्रमणियाँ भी सम्मिलित हों। तेरापंथ-परम्परा की श्रमणियाँ: . तेरापंथ धर्मसंघ के श्रमणी संघ का इतिहास विक्रमी संवत् 1821 से प्रारम्भ हुआ। तब से लेकर अद्यतन पर्यन्त 1700 से अधिक श्रमणियाँ संयम पथ पर आरूढ़ होकर अपने तप-त्याग के द्वारा जिन शासन की चहुमुखी उन्नति में सर्वात्मना समर्पित हैं। आचार्य भिक्षु जी के समय श्री हीराजी 'हीरे की कणी' के समान अनेक गुणों से अलंकृत प्रमुखा साध्वी थीं। श्री वरजूजी, दीपां जी मधुरवक्त्री, आत्मबली, नेतृत्त्व निपुणा प्रमुखा साध्वी थी। श्री मलूकांजी ने आछ के आधार 30 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण से छमासी, चारमासी आदि उग्र तप एवं सात मासखमण आदि किये। साध्वी प्रमुखा सरदारांजी कठोर तपाराधिका थीं। संघ संगठन व शासनोन्नति में इनका योगदान अपूर्व था। श्री हस्तूजी, श्री रम्भा जी, श्री जेतांजी, श्री झूमा जी, श्री जेठां जी आदि की तपस्याएँ इस भौतिक युग में चौंकाने वाली हैं। साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी की स्मरण शक्ति और लिपिकला बेजोड़ थी। श्री मुखां जी अद्भुत क्षमता युक्त, आगमज्ञा साध्वी थीं। श्री धन्नाजी दीर्घतपस्विनी थीं, इन्होंने अन्य तपाराधना के साथ लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप की चारों परिपाटी पूर्ण कर संघ में तप के क्षेत्र में एक अद्भुत कीर्तिमान कायम किया। श्री लाडांजी उच्चकोटि की तपोसाधिका थी, इनके वर्चस्वी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर अकेले डूंगरगढ़ से 36 बहनों व 5 भाइयों ने संयम अंगीकार किया। श्री मौला जी, श्री सोनांजी, श्री कंकूजी, श्री भूरां जी, श्री चांदा जी, श्री अणचांजी, श्री प्यारा जी, श्री भूरां जी, श्री नोजांजी, श्री तनसुखा जी, श्री मुक्खा जी, श्री जड़ाबांजी, श्री पन्ना जी, श्री भतू जी आदि ने विविध तपो अनुष्ठान कर अपनी आत्मशक्ति का परिचय दिया। श्री संतोका जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साध्वी थीं, ये शल्य चिकित्सा लिपिकला, चित्रकला 31 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनां जी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की । आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस युग में श्री गोंराजी संकल्पमना साध्वी थीं, उन्होंने पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया, साथ ही कई धर्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी बनाये । मातुश्री वदनां जी ने आचार्य तुलसी सहित तीन संतानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया । श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवर जी और श्री लिछमां जी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थीं, तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य चिकित्सा में निपुण 32 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण थी। श्री प्रमोदश्री जी, श्री सुमनकुमारी जी द्वारा भी कई कलात्मक कृतियाँ निर्मित हुई। श्री संघमित्रा जी, श्री राजिमती जी, श्री जतनकंवर जी, श्री कनकश्री जी, श्री यशोधरा जी, श्री स्वयंप्रभा जी आदि कई श्रमणियों ने चिंतनप्रधान उत्तम कोटि का साहित्य जन जीवन को प्रदान किया। महाश्रमणी एवं संघ महानिदेशिका साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा जी की अजस्र ज्ञान गंगा से लगभग 115 पुस्तकों का लेखन व सम्पादन हुआ है, जो अपने आप में अनूठा कार्य है। जयश्री जी आदि कई श्रमणियों की उत्कृष्ट काव्य कला की विद्वद्जनों ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है, अमितप्रभा जी आदि कई साध्वियाँ शतावधानी हैं। श्री लावण्यप्रभा जी उज्ज्वलप्रभा जी, सरलयशा जी, सौभाग्ययशा जी आदि कई श्रमणियों ने शिक्षा के अत्युच्च शिखर को छुआ है। समणी साधिकाओं में भी श्री स्थितप्रज्ञा जी, कुसुमप्रज्ञा जी, उज्ज्वलप्रज्ञा जी, अक्षयप्रज्ञा जी आदि विदुषी चिन्तनशील समणियाँ हैं, जो उच्च कोटि का साहित्य सृजन कर समाज को नई दिशा प्रदान कर रही हैं तथा सुदूर देश विदेशों में जाकर ध्यान, योग, जीवन विज्ञान आदि का प्रशिक्षण दे रही हैं। . . 33 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण उपसंहार : वस्तुतः जैन धर्म में श्रमणियों के योगदानों की एक लम्बी सूची है, जिन्होंने समाज को नया विचार, नया चिन्तन और नई वाणी दी एवं प्रसुप्त समाज को प्रबुद्ध बनाया। जैन श्रमणियाँ दिव्य साधना की मुँह बोलती तस्वीरें हैं, ये प्रत्येक काल, प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक सम्प्रदाय में व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। शोध की मर्यादा और सीमा होने से हम उनकी विस्तृत चर्चा नहीं कर पाये। इनमें कितनी ही श्रमणियों ने अहिंसक और व्यसनमुक्त समाज की संरचना में सहयोग दिया तो कितनी ही श्रमणियों ने धार्मिक व आध्यात्मिक उत्कृष्ट तपोमय जीवन के साथ आगम स्वाध्याय, ध्यान साधना, तप-जप संलेखना आदि करते हुए आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। कितनी ही महाविदुषी श्रमणियों ने चिन्तन प्रधान, उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचना की, कइयों ने काव्य क्षेत्र में सुन्दर आध्यात्मिक गीत प्रस्तुत किये, जिनमें काव्य जगत की सभी शैलियों और प्रवृत्तियों को खोजा जा सकता है। कइयों ने स्कूल, कॉलेज, धार्मिक पाठशालाएँ, धर्म स्थान व प्राचीन मन्दिरों के 34 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण जीर्णोद्धार आदि में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, कइयों ने जन कल्याण और मानव सेवा जैसे रचनात्मक कार्य करके धर्म व समाज को गतिशील बनाया। कइयों ने आगम वाणी व प्राचीन ग्रंथों की सुरक्षा हेतु प्रतिलिपिकरण का कार्य किया। वीतराग संस्कृति को अक्षुण्ण रखने के लिए अनेक श्रमणियों ने मिथ्यात्व पोषक परम्पराओं एवं शिथिलाचार के विरूद्ध क्रियोद्धार कर स्वस्थ परम्परा का निर्माण किया। ये सभी वे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं, जिन पर पृथक्-पृथक् रूप से शोध की आवश्यकता है। श्रमणियों का योगदान प्रत्येक क्षेत्र में अनूठा है; अनुपम है, विशिष्ट है। उनमें ऐतिहासिक शोध की पर्याप्त सामग्री है। श्रमणियाँ एक प्रज्वलित ज्योति हैं, उनमें प्रज्ञा का प्रकाश भी है और आचार की उष्मा भी है। उनका जीवन ज्ञान और क्रिया, बुद्धि और विवेक, प्रज्ञा और प्रक्रिया का समन्वित रूप है। इन्द्रधनुष से भी अधिक वे जिनशासन रूपी गगन में शोभा को प्राप्त हुई हैं, उनका व्यक्तित्त्व अलौकिक आभा से मंडित रहा है। इतना होने पर भी आज के युग में श्रमणियों को लेकर समाज के समक्ष कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जो अनुत्तरित हैं .. 35 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण और अब समाधान चाहते हैं कि योग्य, गुणी और ज्ञानवान चिरदीक्षिता साध्वी भी एक सामान्य नवदीक्षित साधु से निम्न स्थानीय क्यों मानी जाती हैं? चतुर्विध संघ उसे संघनायिका की गरिमा क्यों नहीं प्रदान करता? लोक व्यवहार में जब वह माता, ज्येष्ठ भगिनी आदि के रूप में पूज्यनीय बन सकती है, तो दीक्षा के पश्चात् लघु साधुओं द्वारा वंदनीय और पूज्यनीय क्यों नहीं रहती? आज का श्रमण वर्ग जब प्राचीन महासतियों का गुणानुवाद और स्तुति, वंदन इत्यादि कर सकता हैं तो अपने से पूर्व दीक्षिता साध्वी माता, साध्वी गुरूणी या स्थविरा साध्वी को नमन क्यों नहीं कर सकता, क्यों उसे बैठने, बोलने या आवास-निवास, विचार-गोष्ठी आदि में उच्च अथवा समान दर्जा नहीं दिया जाता? वस्तुतः इन वैदिक या बौद्ध संस्कृति के प्रभाव से ग्रस्त परम्पराओं के पुनर्मूल्यांकन की आज आवश्यकता है। श्रमण वर्ग को चाहिये कि वे अपने अहं का विसर्जन कर महावीर के समतावादी सिद्धान्तों की पुनर्स्थापना करने का साहसिक कदम उठाये। यथार्थ की दहलीज पर खड़े होकर श्रमणियों के साथ समता और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें, उनकी प्रतिभा और 36 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण क्षमता के अनुसार उनके अधिकारों को देने का साहस करें। सभी जैन परम्पराओं के चतुर्विध संघ इस धर्म विपरीत, लोक विपरीत आचरण पर प्रतिबन्ध लगाकर जैन धर्म की सात्विकता और गरिमा को बनाये रखने में अपना सहयोग दें। इस शोध प्रबन्ध का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है और श्रमणियों का गरिमापूर्ण इतिहास इस क्रान्तिकारी परिवर्तन की अपेक्षा भी रखता है। 37 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह श्रमणी इतिहास अतीत को जानने का दर्पण है तो वर्तमान श्रमण जीवन की नापने का थर्मामीटर है না জাহী জাহাজ ষ্ট লিষ্ঠী জাচ্ছে জাহেহেন৷ ভাজী হাল জড়িীছে। पायीय भी है। श्रमणी संघ के इस विराट स्त्रीत के प्रत्यक्षा दर्शन कर हम हजारों वर्षों की श्रमणियों के साथ एक सूत्र में आबद्ध ही जाते हैं। अजीत जैन # 9317292123 For Personal & Private Use