Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 25
________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण कलापूर्णसूरीश्वर, विजय नेमीसूरीश्वर, विजय नीतिसूरीश्वर विजय सिद्धिसूरीश्वर ( बापजी), विजय वल्लभसूरीश्वर, विजय मोहनसूरीश्वर, विजय रामसूरीश्वर (डहेलावाला), विजय बुद्धिसागर सूरीश्वर, विजय हिमाचलसूरीश्वर, विजय शांतिचन्द्रसूरीश्वर विजय अमृतसूरीश्वर, आचार्य मोहनलाल जी महाराज विमलगच्छ, सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक समुदाय की श्रमणियों से यह गच्छ शोभायमान हो रहा है। ईस्वी सन् 2005 की गणनानुसार इन श्रमणियों की कुल संख्या 5784 है। " अंचलगच्छ का अभ्युदयं काल विक्रमी संवत् 1146-1778 एवं उसके पश्चात् संवत् 1955 से अद्यतन चल रहा है। उपकेशगच्छ की श्रमणियाँ विक्रम की तेरहवीं से सोलहवीं सदी तक के काल की ही प्राप्त होती है। उसके पश्चात् यह परम्परा अन्य गच्छों में विलीन हो गई, आज इस गच्छ का प्रतिनिधित्व करने वाली एक भी श्रमणी या श्रमण नहीं है। इसी प्रकार आगमिक गच्छ का सितारा भी तेरहवीं से सत्रहवीं सदी तक ही चमकता दिखाई देता है । तपागच्छ की ही एक शाखा पार्श्वचन्द्रगच्छ है, इसका उदय सवंत् 1564 में माना जाता है, किन्तु इस शाखा के 10 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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