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जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण साधु-साध्वी आज भी अच्छी संख्या में विद्यमान है। सन् 2005 में इन श्रमणियों की संख्या 58 थी। कुल मिलाकर सभी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा की श्रमणियाँ वर्तमान में 6322 है।
श्वेताम्बर-परम्परा में गणिनी प्रवर्तिनी महत्तरा आदि पदों को प्राप्त हुई अनेक विदुषी श्रमणियाँ हैं। संवत् 1477 में गुणसमृद्धिमहत्तरा ने 'अंजणासुंदरीचरियं' 503 पद्यों में रचकर अपने वैदुष्य का परिचय दिया था, ये प्राकृतभाषा की एकमात्र लेखिका है। विक्रम की तेरहवीं सदी में महत्तरा पद्मसिरि अलौकिक व्यक्तित्त्व की धनी साध्वी हुई, गूढ से गूढ तत्त्वज्ञान को सुबोध सुमधुर शैली में व्याख्यायित करने की उसकी कला एवं वैराग्य रंग से रंजित सदुपदेशों से आकृष्ट होकर अल्प समय में 700 नारियाँ दीक्षित हुई। मातर तीर्थ में प्रतिष्ठित उनकी प्रतिमा का चित्र अध्याय एक में दिया गया है। इसी प्रकार पन्द्रहवीं सदी में धर्मलक्ष्मी महत्तरा को ज्ञानसागरसूरि ने विमलचारित्र में 'स्वर्णलक्षजननी' और 'सरस्वती' कहकर स्तुति की है। बीसवीं सदी में खरतरगच्छीय श्री उद्योतश्री जी ने विशुद्ध श्रमणाचार का पालन करने के लिए श्री सुखसागर जी महाराज के साथ क्रियोद्धार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई
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