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जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण
आदि में भी निपुण थीं। श्री मोहनां जी ने दूर-दूर के प्रान्तों में विचरण कर धर्म की महती प्रभावना की ।
आचार्य श्री तुलसी जी का शासन तेरापंथ के इतिहास में स्वर्णकाल कहा जा सकता है। इस काल की साध्वियों ने प्रत्येक क्षेत्र में एक मिसाल कायम की है। समण श्रेणी द्वारा जो धर्म प्रभावना का व्यापक रूप दृष्टिगोचर होता है, वह भी इस युग की नई देन है। इस युग में श्री गोंराजी संकल्पमना साध्वी थीं, उन्होंने पाकिस्तान (लाहौर) से नेपाल तक और नागालैंड तक जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया, साथ ही कई धर्मोपकरणों का कलात्मक निर्माण और सैंकड़ों उद्बोधक चित्र भी बनाये । मातुश्री वदनां जी ने आचार्य तुलसी सहित तीन संतानों को तो संयम मार्ग प्रदान कर जैन शासन को अभूतपूर्व योग प्रदान किया ही, साथ ही स्वयं भी दीक्षित होकर तपोमयी जीवन बनाया । श्री चम्पा जी ने 77 दिन का संथारा कर संघ को गौरवान्वित किया। श्री मालू जी ने 20 वर्ष और श्री सोहनांजी ने 54 वर्ष एक चादर ग्रहण कर परम तितिक्षा भाव का परिचय दिया। श्री सूरजकंवर जी और श्री लिछमां जी सूक्ष्माक्षर व लिपिकला में दक्ष थीं, तो श्री कंचनकुंवर जी शल्य चिकित्सा में निपुण
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