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जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण
पत्नी, भंगिनी आदि के रूप में कुछ नाम उपलब्ध हुए है । आगमिक गच्छ जो विक्रम की तेरहवीं सदी से सत्रहवीं शताब्दी तक रहा, उसकी मात्र 4 श्रमणियों की ही जानकारी प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा की सैंकड़ों ऐसी श्रमणियाँ हैं, जिन्होंने ताड़पत्र, भोजपत्र अथवा कागज पर प्राचीन ग्रंथों को लिखने का कार्य किया । या विद्वानों से लिखवाकर योग्य श्रमण श्रमणियों को स्वाध्याय हेतु अर्पित किया, उनसे सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्रशस्ति-ग्रंथों और पांडुलिपियों में प्राप्त होते हैं, ऐसी संवत् 1175 से 1928 तक के काल की श्रमणियों का वर्णन उपलब्ध होता है।
स्थानकवासी परम्परा की श्रमणियाँ
श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी से माना जाता है। उस काल में लुंकागच्छ की कतिपय श्रमणियों के नाम संवत् 1615 से 1880 तक की हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त होते हैं। स्थानकवासी परम्परा लोंकागच्छीय यति परम्परा से निकलकर क्रियोद्धार करने वाले छः महान आचार्यो की परम्परा का सम्मिलित रूप है। वे छ: आचार्य हैंआचार्य जीवराज जी, आचार्य लवजीऋषि जी, आचार्य हरिदास जी, आचार्य धर्मसिंह जी, आचार्य धर्मदास जी
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