Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 22
________________ जैन श्रमणी परम्परा : एक सर्वेक्षण जाता है। सर्वप्रथम इस परम्परा में संवत् 757 से पन्द्रहवीं सदी तक कर्नाटक प्रान्त में हुई, उन अमरत्व की पूज्य प्रतिमाओं की जानकारी मिलती है, जिन्होंने श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर महान संलेखना व्रत अंगीकार कर अपने आत्मिक उत्कर्ष का परिचय दिया था, तथा आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक हुई उन कुरत्तिगल भट्टारिकाओं का भी इतिहास प्राप्त हुआ है, जिन्होंने स्वतन्त्र रूप से अपने संघ का नेतृत्त्व किया था। इन श्रमणियों ने बड़े बड़े विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाकर वहाँ उच्चकोटि के जैन धर्म व दर्शन के विद्वान् पंडित तैयार किये, जो देश के विभिन्न भागों में जाकर धर्म का प्रचार करते थे। ___ इसी प्रकार विक्रमी संवत् ग्यारहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक अनेक श्रमणियाँ हुई जिनके सक्रिय धार्मिक सहयोग एवं प्रेरणा से देवगढ़ (उत्तरप्रदेश) की मूर्तियाँ एवं मन्दिर निर्मित हुए। वहाँ के एक मानस्तम्भ पर तो आर्यिका का उपदेश भी दो पंक्तियों में अंकित है। विक्रम की उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में दिगम्बर परम्परा की श्रमणियों के कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होते। इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में पुनः इस परम्परा की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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