Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan

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Page 8
________________ लोह को स्वर्णिम-आभा से भासमान कर देता है। श्रमणी वस्तुतः श्रामण्य से विमुख नहीं होती है, कृत्रिमता से समाकृष्ट भी नहीं हो पाती है, उसने अपनी गरिमा को विस्मृति के गहरे गर्त से सदा दूर रखा है। वह वास्तव में समाज के लिये अभिशाप रूप नहीं, अपितु वरदान रूप होती है। उसके समक्ष सर्वोच्च आदर्श का परिस्पष्टपरिलक्ष्य भी है। उसकीगति अधोमुखी नहीं, किन्तु ऊर्ध्व मुखी है। उससे राष्ट्रीय-कल्याण भी संभव है, इसी से उस का मंगल निहित है। वह स्वयं से परिचित है। तभी यथार्थ से आदर्श की आनन्दपूर्ण मंगल यात्रा संभव हो पाती इसी परिप्रेक्ष्य में सत्य और शील की ज्योतिशिखा साध्वी श्री विजयश्री जी "आर्या" द्वारा आलिखित "जैन श्रमणियों काबृहद् इतिहास" वस्तुतः एक शोधपूर्णग्रन्थ है। यह अन्थ रचना धर्मिता का एक उपमान है, प्रतिमान भी है। शोधार्थिनीसाध्वीश्रीजीने विषय-वस्तुको अष्टविध अध्याय में वर्गीकृत भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया है। जिससेग्रन्थ का व्यक्तित्व आभापूर्णरूपसेरूपायित है। इतना ही नहीं इससे यह पूर्णतः प्रगट है कि श्रद्धास्पदा साध्वी श्री जी माता शारदा की दत्तका नहीं, अपितु अंगजाता आज्ञानुवर्तिनी सुयोग्य नन्दिनी है। मुझे भी अतिशय-प्रसन्नता है कि प्रतिभा-पद्म श्री साध्वी श्रीजी के उपक्रम और पराक्रम का मणि-कांचन संयोग प्रस्तुत शोध पूर्ण ग्रन्थ के प्रत्येक अध्याय और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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