Book Title: Jain Shramani Parampara Ek Sarvekshan
Author(s): Vijayshree Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Pratishthan
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पुरोवाक्
समाज वस्तुतः एक मंगल-स्वरूप महारथ है, नर और नारी इसी रथ के अविचल चक्र हैं। ये दोनों ही चक्र परस्पर-संपूरक हैं और इनमें अविनाभाव सम्बन्ध सर्वदा सर्वथारूपेण संनिहित हैं। यह वह अवस्था है, जो इन दोनों के लिये सुखद-संयोग कीर्वणमयी पृष्ठभूमि निर्मित कर देती है।
इसी सन्दर्भ में यह पूर्णतः प्रगट है कि पुरुष वर्ग की दम्भपूर्ण वृत्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वज्येष्ठ सद्रूप से उद्घोषित किये बिना नहीं रह पाती है। मानव-विहित शास्त्रीय बन्धन भी नारी के लिये प्रतिबन्ध संप्रस्तुत करते हैं। यही मुख्य एवं मूल हेतु है कि उसे दीनत्व और हीनत्व के दृष्टिकोण से स्वीकृत किया गया। कि बहुना, अबला को दीनता-प्रधान विशेषण का विशेष्य बना दिया। यह कदाचित् नारी की सर्वात्मना-समर्पणा और अतिशयसहिष्णुता के रूप में चरितार्थ रहा है। पुरुष का अहंभाव अग्रिम-स्वरूप में घटित हुआ। उस का सामाजिकअधिष्ठान भी अधोमुखी हुआ, वह दिव्य-देवी से दीना एवं हीना बनती रही, एतदर्थ उस के प्रति मानव-मानस भी स्वाभाविक-संवेदना से लुप्तप्रायः किंवा शून्य प्रायः रहा।
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