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विश्वनिर्माता
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नामक जादूकी छडी हिलाकर अन्याय तथा अनीतिको भारतके नामपर नीति तथा न्याय क्षण - मात्रमे घोषित कर देता था, उसी प्रकार अनन्त आपत्तियो तथा महान् विरोधोके वीचमें उस लीलामय परमपिता परमात्माकी लोकोत्तर शक्ति आदिके बलपर असम्भव भी सम्भव तथा तर्क- वाह्य भी तर्क -सगत वना दिया जाता है। अतएव यह आवश्यक है कि साम्प्रदायिक सकीर्णताको निर्ममतापूर्वक निकालकर निर्मल मनोवृत्तिके साथ परमात्माके विषयमे विचार किया जाए ।
ईश्वरको विश्वका भाग्य विधाता जैन दार्शनिकोने न मानकर उसे ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि अनन्त - गुणोका पुञ्ज परम आत्मा (परमात्मा ) स्वीकार किया है । इस मौलिक विचार - स्वातन्त्र्यके कारण महान् दार्शनिक चिन्तनकी सामग्रीके होते हुए भी वैदिकदार्शनिकोने षट्दर्शनोकी सूचीमे जैन दर्शनको स्थान नही दिया। अस्तु, प्रसिद्ध पट्- दर्शनोमे अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाला साख्यदर्शन ईश्वर-विषयक जैन- विचार -शैलीका समर्थन करता है । सेवर साख्य नामसे विख्यात योगदर्शन भी ईश्वरको जगत्का कर्त्ता नही मानता। वह क्लेश, कर्मविपाकागयसे असम्बन्धित पुरुष - विशेषको ईश्वर कहता है । न्याय और वैशेषिक सिद्धान्तने मूल परमाणुओ आदिका अस्तित्व मानकर ईश्वरको जगत्का उपादान कारण न मान निमित्तकारण स्वीकार किया है ।
पूर्व मीमासा - दर्शन भी निरीश्वर साख्यके समान कर्त्ता - वादका निषेध करता है। उत्तर- मीमासा अर्थात् वेदान्तमे भी ईश्वर कत्तं त्वका तत्त्वत दर्शन नही होता है । उस दर्शनमें इस विश्वको ब्रह्मका अभिव्यक्त
१ "ईश्वरासिद्धेः । "
- साख्य सू० ११९२ । २ " क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरासृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर: "
- योगसूत्र ११२४ | ३ देखो - मुक्तावली, The cultural Heritage of India-P. 189-191