Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 464
________________ ४२८ जैनशासन है। उसके पच अतीचार इस प्रकार कहे गए है, १ छेदना, २ दुर्भावपूर्वक बाधना, ३ पीडा देना, ४ बहुत बोझा लादना, ५ आहार देने में त्रुटि करना या आहार न देना। इनके द्वारा अहिसात्मक दृष्टिका पोषण होता है। रत्नकरडश्रावकाचार, सागारधर्मामृत आदि ग्रन्थोसे यह विषय स्पष्टतया तथा व्यवस्थित रूपसे समझा जा सकता है। इस विषयका प्रतिपादन 'पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है। जैनियोमे जो अहिंसात्मक वृत्तिका यथाशक्ति पालन है, उसका कारण वैज्ञानिक शैलीसे प्रकाश डालनेवाले सत्साहित्य का स्वाध्याय, प्रभाव तथा प्रचार है। ___ इन अहिसा आदि व्रतोके श्रेष्ठ आराधक दिगम्बर जैन महामुनि आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे मैने एक बार पूछा था-"महाराज, इस युगमे उन्नति तथा शान्तिका उपाय क्या है ?" आचार्य महाराजने जो समाधान किया था, यथार्थमे विश्वकी विकट समस्याओका सरल सुधार उसीमे निहित है । महाराजने कहा-"विना पाप और पापबुद्धिका त्याग किए, न व्यक्तिका सुधार हो सकता है, न समाजका , न राष्ट्रका, और न विश्वका । जिस जिस जीवने हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील तथा अधिक तृप्णाका यथाशक्ति परित्याग किया है, उसका उतना कल्याण हुआ है। जिनने हिसादि पापोकी ओर प्रवृत्ति की है, वे दुखी हुए है।" वास्तवमें जगत्का सच्चा कल्याण आचार्य महाराजके कथनानुसार “पाप तथा पापबुद्धिके परित्यागमे है।" महर्षि कुन्दकुन्दका कितना पवित्र उपदेश है "जिणवयणमोसहमिण विसयसुहविरेयणं अमियभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥"-दर्शनप्राभृत "जिन भगवान्की वाणी परमौषधि रूप है। यह विषय-सुखका त्याग कराती है। यह अमृत रूप है । जरा-मरण व्याधिको दूर करती है तथा सर्व दु खोका क्षय करती है।' यह जिनेन्द्र वाणी विश्वकी सपत्ति है। प्रत्येक व्यक्तिको यह अधिकार है, कि इस अभयप्रद अमृतवर्षिणी जिनवाणीके रसास्वादन द्वारा

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