Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 484
________________ ४४८ जैनगासन मेरी भोग-तत्रताकी निविड-निशाको दूर करे। जैनशासनमे दिगम्बर गुरु, दिगम्बर मूर्तिकी आराधनाका यही अतस्तत्व है। ___ बैनथमने अपने 'अर्थशास्त्र' में कितनी सुन्दर बात लिखी है, “प्रत्येक व्यक्तिको सभी सेव्य पदार्थोकी प्राप्ति हो सके, अर्थात् उसकी इच्छानुसार उसका जीवन स्तर बना दिया जाय, यह सभव नहीं है। हा| यदि सभी लोग जैन सदृश होते तो यह सभव था, कारण भारतीयोके जैन नामक वर्गमे अपनी भौतिक आकाक्षाओको सयत करना तथा उनका निरोध करना पाया जाता है। दूसरा उपाय यह होगा, कि यदि दिव्य लोकसे बहुधा तथा विपुल मात्रामे भोग्य पदार्थ आते जावे, तो काम वन जाय, किन्तु वस्तुस्थितिको दृष्टिपथमे रखते हुए ऐसा नही किया जा सकता है।" अतएव आजके भोग प्रचुर जगत्की जीवन-नौकाको विपत्तिकी भवरसे बचाने के लिए 'अपरिग्रहवाद' या सयत-मनोवृत्तिका रूप उज्ज्वल आलोक-स्तभ ( Light House ) की आवश्यकता है। परिग्रह की वृद्धि आत्माको दवाते हुए इस जीवको गतप्राणसा बना देती है। इसीसे आचार्य नेमिचद्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने 'मुच्छा परिग्गहो' परिग्रहको मूर्छा बताया है । लौकिक मूर्छामे वेहोशीके कारण बाह्य वस्तुओका उचित भान नहीं रहता है इसी प्रकार इस अलौकिक मूर्छामे वाह्य वस्तुओका ही १. “But it is qute impossible to provide every body with an many consumer's goods, that is with as high standard of living as he would like. If all persons were like Jains-members of an Indian sect, who try to subdue and extinguish their physical desires, it might be done. If consumer's goods descended frequently and in abundance from the heavens, it might be done. As things are it cannot be done" --Econommes by Frederic Bentham p. 8.

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