Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 482
________________ ४४६ जैनशासन कीचडमे घुस गए और उस दुखी जीवके प्राणोका रक्षण किया। लोगोने उनसे पूछा कि ऐसा उनने स्वय क्यो किया, दूसरे को आज्ञा देकर भी वे यह कार्य कर सकते थे ? उनने उत्तर दिया कि उस प्राणीको छटपटाते देख मेरे हृदयमं वडी वेदना हुई, अत में दूसरे का सहारा लेने के विषय में विचार तक न कर सका और तुरन्त प्राण बचानके कार्य में निरत हो गया । वास्तव मे जहा सच्ची अहसाकी जागृति होती है, वहा मनुष्य अमनुष्यका भेद नही किया जाता है । इस करुणाके कार्यसे मनुष्यको अनुपम आनन्द प्राप्त होता है । करुणाकी निधिको जगत्‌को कितना ही दो, इससे दातारमे कोई भी कमी नही आती, प्रत्युत वह महान् आत्मीक शक्तिका संग्रह करते जाता है । वेदान्तीकी भाषामे जैसे सर्वत्र ब्रह्मका वास कहा जाता है, इस शैलीसे यदि सत्य तत्त्वका निरूपण किया जाय, तो कहना होगा, सर्व उन्नतिकारी प्रवृत्तियोमे अहिसाका अस्तित्व अवश्यभावी है। जितने अशमें अहिसा महाविद्याका अधिवास है, उतने अशमे ही वास्तविक विकास और सुख है। 'अमृतत्वका कारण अहिंसा है, और हिंसा मृत्यु और सर्वनाशका द्वार है | गीता कहा है- कल्याणपूर्ण कार्य करनेवाला दुर्गतिको नही प्राप्त करता है; आज कल्याण करनेकी उपदेशपूर्ण वाणी सर्वत्र सुनी जाती है, किन्तु आवश्यकता है पुण्याचरणकी । पथप्रदर्शक लोग प्राय असयम और प्रतारणापूर्ण प्रवृत्ति करते हैं, इससे उनकी वाणीका जगत्के हृदयपर कोई भी असर नही पड़ता है। हिन्दू पुराणोमं कहा है, ब्रह्मदेवने तिलोत्तमा अप्सराके रूपको देखकर अपनेको चतुरानन बनाया । बादमे जब अप्सराने ऊपर नृत्य आरंभ किया, तो पचम मुख बनानेका प्रयत्न किया । पुण्य क्षीण हो जाने से वह रासभका मुख वन गया। ऐसा ही हाल अहिंसाका आदेश, उपदेश देनेवाले हमारे राष्ट्रके बहुतसे पथ-प्रदर्शकोका हो गया है। श्री १ " अमृतत्व हेतुभूतं श्रहिंसा- रसायनम् । " - अमृतचंद्र सूरि । २ " न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गंत तात गच्छति ।" गीता ।

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