Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 475
________________ कल्याणपथ ४३६ परिवर्तन नही प्रतीत होता। मद्यपान प्रसारके निरोध निमित्त सरकार कुछ तत्पर दिखती है, किन्तु इस क्षेत्रमे भी उसकी प्रगति आलोचनीय है। मासाहार और जीववधके क्षेत्रमे तो अद्भुत उदासीनता है। अनेक योजनाओ द्वारा जीववध, मासकी उपलब्धि आदि की अमर्यादित वृद्धि होती जा रही है, फिर अहिंसात्मक सरकारकी स्थिति का गर्व और गौरवपूर्वक नाम लिया जाता है। मासाहार, जीववध, धर्मके नाम पर ईश्वर तथा देवताओके आगे वलिका कार्य जब तक नहीं रोका जाता है, तब तक अहिंसात्मक शासन का नाम तक लेना उपहासकी वस्तु है, जैसे 'आखोके अधे का नयनसुख' नामकरण का कार्य। जो लोग इस हिंसाकी महामारीके य गमे अहिंसावादी जैनोसे प्रकाश पानेके प्रेमी है वे सोमदेवसूरिकी अहिसाकी इस व्यवस्थाको हृदयगम करनेकी कृपा करे और स्वार्थके आधार पर अवस्थित अपनी सीमित अहिंसाकी धारणाका परिमार्जन करे। “यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहायनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिंसा तु सतां मता।"-यशस्तिलक । असावधानी अथवा रागद्वेषादिके अधीन होकर जो जीवधारियोका प्राण-हरण किया जाता है, वह हिंसा है। उन जीवोका रक्षण करना सत्पुरुपो ने अहिसा कहा है। ससारमे अहिंसाकी महत्ताको सभी धर्म स्वीकार करते है। मुसलिम वादशाह अकवरने मासाहारका परित्याग कर दिया था, 'जानवरोको मारकर उनके मासभक्षण द्वारा अपने पेटको पशुओका कब्रस्तान मत बनाओ'। जिनने पशु बलिदानको धर्मका अग मान लिया है, उनके हृदयमे यह वात प्रतिष्ठित करनी है कि वेचारे दीन-हीन प्राणियोके प्राणहरणसे भी कही कल्याण हो सकता है ? यथार्थमें अपनी पशुतापूर्ण चित्त वृत्तिका वलिदान करनेसे और करुणाके भावको जगानेसे जगज्जननीकी परितृप्ति कही जा सकती है। ऐसी कौन जननी होगी, जो अपनी सतति रूप जीवधारियोके रक्त और माससे आनदित होगी? जवतक विश्ववैपम्यके जनक कर्मके वधमे कारण हृदयको अहिंसात्मक विचारोसे

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