Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 472
________________ ४३६ जैनगासन आदर्शचरित्र मानव वासनाओको प्रणामाजलि अर्पित करनेके स्थानमे उनके साथ युद्ध छेडकर अपने आत्मवलको जगाता हुआ जयशील होता है। वह आत्माकी अमरतापर विश्वास धारण करता हुआ पुण्यजीवनके रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करनेसे भी मुख नही मोडता है । सत्पुरुष सुकरात ने अपने जीवनको संकटाकुल भले ही बना लिया और प्राण परित्याग किया, किन्तु जीवनकी ममतावश अनीतिका मार्ग नही ग्रहण किया। अपने स्नेही, साथी क्रीटोसे वह कहता है, कि आदर्श रक्षणके आगे जीवन कोई वस्तु नहीं। कर्तव्य पालन करते हुए मृत्युकी गोदमे सो जाना श्रेयस्कर है। ये गब्द कितने मर्मस्पर्शी है, "हमे केवल जीवन व्यतीत करनेको अधिक मूल्यवान नही मानना चाहिए, बल्कि आदर्श जीवनको वहुमूल्य जानना चाहिए।" आजका आदर्शच्युत मानव अपनी स्वार्थ-साधनाको प्रमुख जान विषयान्व बनता जा रहा है। ऐसा विकास, जिसका अतस्तल रोगाक्रान्त है, भले ही बाहरसे मोहक तथा स्वस्यसा दिखे, किंतु न जाने किस क्षण हृदय-स्पदन रक जानेसे विनागका उग्र रूप धारण कर इस जीवको चिर पश्चात्तापकी अग्निमें जलावे। स्वतत्र भारतने अगोकके धर्मचक्रको राज्यचिह्न बनाया है। यदि उस धर्मचक्रकी मर्यादाका ध्यान रखकर हमारे राष्ट्रनायक कार्य करे, तो यथार्यमे देश अपराजित और अशोक बनेगा। धर्मचक्र प्रगति और पुण्य प्रवृत्तियोका सुन्दर प्रतीक है। इसके मंगलमय सदेशको हृदयंगम करते हुए भारतीय गासन अन्य राष्ट्रोके अन्त करणमे उसकी महत्ताको अकित कर सकता है। धर्मचक्र करुणापूर्ण गासनका अग है। धर्मकी विश्वमान्य व्याच्या करुणाका भाव ही तो है । गद्यचिन्तामणिमें लिखा है दया-मूलो भवेद्धर्मो दया प्राणानुकम्पनम् ।" { "The should set the highest value, not on living but on living well." -Trial and Death of Socrates.

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