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विश्व-स्वरूप
निकोने माना है। 'उत्तररामचरित्रमे वर्णित देवी सीताका पृथ्वी माताकी गोदमे समा जानेवाली बात यहा नही स्वीकार की गयी है। इस विशाल पृथ्वीको पुद्गलकी स्थूल पर्याय मात्र माना गया है, उसमे मातृत्व अथवा देवीपनेकी कल्पना जैन वैज्ञानिकोने स्वीकार नहीं की।
इस पुद्गलका सबसे छोटा अग जिसका दूसरा भाग न हो सके परमाणु कहलाता है। यह परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होता है। जब स्निग्धता और रूक्षताके कारण दो या अधिक परमाणु मिलकर बँधते है, तव पुजीभूत परमाणुपिण्डको 'स्कन्ध' कहते है। वैशेषिक दर्शन अपनी स्थूल दृष्टिसे सूर्यके प्रकाशमें चलते फिरते धूलि आदिके कणोको परमाणु समझता है। ऐसे कथित तथा विभागरहित कहे जानेवाले वैशेषिकके परमाणुओके वैज्ञानिकोने विद्युत् शक्तिकी सहायतासे अनेक विभाग करके अणुवीक्षण यत्रसे दर्शन किए है। जैन दार्शनिकोकी सूक्ष्मचिन्तना तो यह बताती है कि किसी भी यत्र आदिकी सहायतासे परमाणु हमारे नयनगोचर नहीं हो सकता। जो पदार्थ चक्षु-इन्द्रियके द्वारा गृहीत होते है, वे अनन्त परमाणुओके पिण्डीभूत स्कन्ध है । वैज्ञानिक जिसे परमाणु कहेगे, जैन दार्शनिक उसमे अनन्त सूक्ष्म परमाणुओका सद्भाव वताएँगे। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण विकृतिका नाश करनेवाले सर्वन परमात्माकी दिव्य ज्ञानज्योतिसे प्रकाशित तत्त्वोका उन्हें वोध प्राप्त हुआ है। इसीलिए वैज्ञानिकोने जो पहिले लगभग सात दर्जनसे भी अधिक मूल तत्त्व (Elements) माने थे और अव जिनकी सख्या बहुत कम हो गयी है, उनके विषयमे जैनाचार्योने कहा है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले अनेक तत्त्व नहीं है। एक पुद्गल तत्त्व है जिसने वडे-बडे दार्शनिको तथा वैज्ञानिकोको भूलभुलैयामे फँसा अनेक मूल तत्त्वके माननेको प्रेरित किया।
१ "पृथ्वी-एहि वत्से पवित्रीकुरु रसातलम्। रामः-हा प्रिये ! लोकान्तरं गता हि । सीता-णेदुमं अत्तणो अंगेस विलअं अम्बा। ण सक्कम्हि ईदिसं जीअलोअपरिवत्तं अणुभविदु".....सप्तमांक पृ० १८६, १८७ ।