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जैनशासन
मार्ग खोलता है। एकान्त पक्ष अंगीकार करनेसे लोक व्यवहार तथा यथार्थ दार्शनिक चिन्तनाके लिए स्थान ही नही रहता।
सामञफलसुत्तके वाक्य मूलमे 'श्रमणो और ब्राह्मणोके द्वारा,' कहे गये है। इन शब्दोके आधारपर ध्रुव महाशय स्याद्वादके विकृतरूपको जनेतर स्रोतसे सम्बन्धित कहते है। किन्तु डा० ए० एन० उपाध्ये अपनी प्रवचनसारकी भूमिकामे यह तर्क करते है-"मूलमे आगत 'Recluses and Brahmins' मे श्रमणके द्योतक 'Recluses' को विशेष ध्यानमें लाना चाहिए । श्रमण शब्द मुख्यतया जैनियोको घोतित करता है।
इसका विश्वमान्य प्रमाण महाश्रमण भगवान् गोमटेश्वरकी भुवनमोहिनी अत्यन्त समुन्नत दिगम्बर जैन मूर्तिसे अलकृत मैसूरराज्यका श्रमणवेलगोला स्थल है । अतएव श्रमण शब्दका अन्य पर्यायवाची बतानेका प्रयास सत्य और निष्पक्ष चिन्तनाके प्रतिकूल है।
१. “This deduction is based on the supposition that. Syadvada had non-Jain beginnings as proposed by himself on account of its being attributed to 'Recluses. and Brahmins' The deduction is fallacious because as shown about the term 'Tecluse' a Sramana. pre-eminently means a Jain "-Pravachanasara's Introduction p. LXXXVIII.,
२ अत्यन्त प्राचीन जैनग्रंथ महाबन्धमें मुनिके लिए 'समण' शब्द का प्रयोग पाया है। पृ० १० णमो पव्ह समणाणं', पृ० ३६,सामाणं समाधिसंधारणदाए, सामाणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए, सामाणं पासुगपरिच्चागदाए...महावंधशास्त्र ।
३ दतिया रियासतका सोनागिर जैन तीर्थ यथार्थमें श्रमणगिरि हो तो है।