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जैनशासन
कहते है-'हे जीव ] पुत्र, स्त्री आदिके निमित्त लाखो प्राणियोकी हिंसा करके तू जो दुष्कृत्य करता है, उसके फलको एक तू ही सहेगा।' ___ आजके युगमे उदारता, समता, विश्वप्रेम आदिके मधुर शब्दोका उच्चारण करते हुए अपनी स्वार्थपरताका पोषण बडे बडे राष्ट्र करते है, और करोडो व्यक्तियोके न्यायोचित और अत्यन्त आवश्यक स्वत्वोका अपहरण करते है, उनको इस उपदेशके दर्पणमे अपना मुख देखना श्रेयस्कर है।
कवि आत्माके लिए कल्याणकारी अथवा विपत्तिप्रद अवस्थाके कारणको बताते हुए साधकको अपना मार्ग चुननेकी स्वतत्रता देते है और कहते है
"देखो। जीवोके बधसे तो नरकगति प्राप्त होती है, और दूसरोको अभयपद प्रदान करनेसे स्वर्गका लाभ होता है। ये दोनो मार्ग पासमे ही बताए गये है। 'जहिं भावइ तहि लग्गु'-जो बात तुम्हे रुचिकर हो, उसीमे लग जाओ'। कितना प्रशस्त और समुज्ज्वल मार्ग बताया है। जो जगत्को अभय प्रदान करेगा, वह अभय अवस्था तथा आनन्दका उपभोग करेगा। जो अन्यको कष्ट देगा, उसे विपत्तिकी भीषण दावाग्निमे भस्म होना पडेगा। जिसे कल्याण चाहिये, उसे पूर्वोक्त सदुपदेशको ध्यान में रखना चाहिये।
लोग अपनी आत्माको भूल जाते है। ग्रन्थोका परिशीलन और तप साधनामे अपनेको कृतकृत्य समझते है । वे यह नही सोचते, कि १ 'मारिवि जीवहं लक्खड़ा, जं जिय पाउ करीसि । पुत्तकलत्तहं कारणइ, त तुहु एक सहीसि ॥ २५५ ॥"
-परमात्मप्रकाश । २ "जीव वधंतहं परयगइ, अभयपदाणे सग्गु ।
बेपह जबला दरिसिया, जहिं भावइ हि लग्गु ॥ २५७॥"