Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 439
________________ पुण्यानुबन्धी वाड्मय ४०३ अत्यन्त वृद्धा है । ( कारण उसके वैभवका पार नही है ) । सरस्वती भी अधिक जीर्ण हैं- (शास्त्राभ्यासी होने के कारण उसका श्रुताभ्यास बहुत बढा चढा है ) । वीरश्री शत्रुओका क्षय होनेके कारण शान्त सदृग ( उसमे चैतन्यपना नही मालूम पडता ) दिखती है । यह ब्याज स्तुति है । जिनसेन स्वामीके शब्द सुनिए "अयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभा ॥ ३९६ ॥ कीतिर्व हिश्चरा लक्ष्मीरतिवृद्धा सरस्वती । जीर्णेतरापि शान्तेव लक्ष्यते क्षतविद्विषः ॥" - महापु० ४३।३२० । स्पृहा - आकाक्षा ही सच्चे सुखकी उपलब्धिमे बाधक है अत निस्पृत्वमे ही कल्याण है इस विषयको सुभाषितरत्नसदोहमे आचार्य अमितगति इन सुन्दर शब्दोमे समझाते है " किमिह परम सौख्यं निस्पृहत्वं यदेतत् किमय परमदुःखं सस्पृहत्व यदेतत् ॥ १४ ॥ " सर्वत्र यही कहा जाता है कि चरित्रका सुधार करना चाहिये । उस चरित्र का स्वरूप जानना आवश्यक है । श्रमितगति स्वामी कहते है - कषाय-क्रोधादि विकारो पर विजय प्राप्त करना ही चरित्र है । क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, घृणा, काम, तृष्णा आदिके अधीन रहते हुए चरित्रका दर्शन नही होता । "कषायमुक्तं कथितं चरित्रं कषायवृद्धावपघातमेति । यदा कषाय. शममेति पु सस्तदा चरित्रं पुनरेति पूतम् ॥२३३॥" कविका कथन है कि सन्तसमागम के द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, जोभाव दूर होता है, सात्त्विक वृत्तिका आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्याय वृत्ति उत्पन्न होती है, धर्ममे चित्त लगता है तथा पापबुद्धि दूर होती है अत साधुजनकी सगति द्वारा क्या नही मिल सकता है ?

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