Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 350
________________ ३१४ जनशासन ___ इस प्रकार महत्त्वपूर्ण सामग्रीके प्रकागमें मेजर जनरल फरलांग एम० ए० एफ० आर० ए० एस० का यह कथन हृदयग्राही मालूम होता है-"पश्चिमीय एवं उत्तरीय मध्यभारतका ऊपरी भाग ईसवी सन्से १५०० वर्षसे लेकर ८०० वर्ष पूर्व पर्यन्त, उन तूरानियोके अवीन था, जिनको द्रविड़ कहते है। उनमे सर्प, वृक्ष तथा लिंगपूजाका प्रचार था।...उस समय उत्तर भारतमें एक प्राचीन, अत्यन्त संगठित closley resembles the pose of the standing deities on the Indus seals. Among the Egyptian sculptures of the time of the early dynasties (III-VI) there are standing statuettes with arms hanging on two sides. But though these Egyptian statues and the archaic Greek Kouri show nearly the same pose, they lack the feeling of ahandonment that characterises the standing figures of the Indus seals three to five (Plate II F G H.) with a bull (°) in the foreground may be the prototype of Rishabha”. -Quoted in the Jain Vidya Vol. I, no I, Lahore. मोहनजोदडोकी सील कोवैराग्ययुक्त कायोत्सर्ग मुद्रा तथा वृषभ का चिह्न भगवान वृषभदेवके प्रभावको चोतित करते है। जिनको यह स्वीकार करना आपत्तिप्रद मालूम पड़ता है, उनको कमसे कम यह स्वीकार करना होगा, कि सिन्धु नदीकी सभ्यताके समय जैनधर्म था, जिसका प्रभाव सीलकी मूर्ति द्वारा अभिव्यक्त होता है। र्वोक्त अवतरणमें श्रीरामप्रसाद चन्दा सीलोको दृषभदेवको द्योतक बताते हैं । जो श्री चन्दा महागयले सहमत न हो, उन्हें यह मानना न्याय्य होगा, कि उस पुरातन कालमें एक ऐसी सभ्यता या सस्कृति थी, जिसे आज जैन कहते हैं । उसका प्रभाव सील द्वारा प्रकाशित होता है। अतः सील या तो जैन तीर्थंकर वृषभदेवको धोतित करती है, अथवा जैन प्रभावको सचित करती है।

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