Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ । ३४४ जैनशासन थी। दुराचरणका बहुत कम दर्शन होता था। लोगोको अपने घरोमें ताले तक नहीं लगाने पड़ते थे। स्वयं की भूल और दूसरोके अत्याचारोके कारण जबसे जैनशासनके ह्रासका आरंभ हुआ तवसे उसी अनुपातसे देशकी स्थितिमे अन्तर पड़ता गया। प्रो. आयंगर सदृग उदारचरित्र विद्वानोके निष्पक्ष अध्ययनसे निष्पन्न सामग्नीसे ज्ञात होता है, कि जैनधर्म, जैनमदिर, जैनशास्त्री तथा जैनधर्माराधकोका अत्यन्त क्रूरतापूर्ण रीतिसे शैव आदि द्वारा विनाश किया गया। वे लिखते हैं, कि 'परियपुराणम् मे वर्णित गैव विद्वान् तिरज्ञान सबंधरके चरित्रसे ज्ञात होता है कि पांड्य नरेशने जैनधर्मका परित्याग कर शवधर्म स्वीकार किया और जैनो पर ऐसा अत्याचार किया, कि जिसकी तुलना योग्य दक्षिण भारतके धार्मिक आदोलनोके इतिहासमे सामग्री नहीं मिलेगी। सम्बन्चर रचित प्रति दस पद्यमे एक ऐसा मार्मिक पद्य है जो जैनियोके प्रति भयंकर विद्वेषको व्यक्त करता है । इस पाड्य नरेगका समय ६५० ईस्वी अनुमान किया जाता है। ऐसे ही अत्याचारोके कारण जैनधर्म पल्लव नरेशोके यहां अत्यधिक विपत्तिसे आक्रान्त हुआ। जैनधर्मके परम विद्वेषी संवधरके प्रयत्नते जैनोंके हिन्दुओ द्वारा सहारके चित्र मदुराके मीनाक्षी मन्दिरके स्वर्णकमल युक्त सरोवरके मडपकी दीवालमे सुरक्षित रखे गए। इतने & The Jains were also persecuted with such rigour and Cruelty that is almost unparalled in the histoise of religious movement in South India The Soul-stirring hymns of Sambandhar erer' tenth rerse of which was deroted to anathematise the Jains clearly indicate the bitter nature of the struggle -J.G P 154. As though tlus were not sufficient to humiliate that unfortunate race, the whole tragedy is enacted at five of the twelve annual festivals at the Jadura temple : p. 167.

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