Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 371
________________ पराक्रमके प्रागण मे ३३५ थे। रविवर्माने कार्तिक सुदीके अप्टाह्निका पर्वको महोत्सवपूर्वक मनाने की राजाज्ञा' प्रचारित की थी । राष्ट्रकूटोमे जैनधर्मकी विशेष मान्यता थी । सम्राट् अमोघवर्षं जिनेन्द्रभक्त, विद्वान्, पराक्रमी, पुण्यचरित्र तथा व्यवस्थापक नरेश थे । उनका विश्वके चार विख्यात नरेशोमे स्थान था। नवमी सदीका एक अरव देशका यात्री लिखता है कि अमोघवर्षके राज्यमे सर्व प्रकार की सुव्यवस्था थी ! लोग शाकाहारी थे । सन् ८५९ मे एक दूसरा अरव का यात्री लिखता है - " अमोघवर्पके राज्यमे धन सुरक्षित था, चोरीडकैतीका अभाव था, वाणिज्य उन्नतिके शिखरपर था, विदेशियो के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार होता था।" राष्ट्रकूट वशमें वकेय, श्रीविजय, नरसिंह आदि अनेक पराक्रमी जैन प्रतापी पुरुष हुए है। अमोघवर्पने अपने जीवनके सध्याकालमे दिगवर जैनमुनिकी मुद्रा भगवत्जिनसेनाचार्य के आध्यात्मिक प्रभाववश धारण की थी । राष्ट्रकूटवश के जैनवीरोके चरित्रके अध्येता विद्वान् डा० अल्टेकर अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकूट' में लिखते है - " जैन नरेशो तथा सेनानायकोके ऐसे कार्योको १ Ibid and Some Historical Jain kings and Heroes. -Jain Antiquary Vol vi No 1 p 21 २ Med Jainism pp 30-34 ३. “Rashtrakuta territory was vast, well peopled commercial and fertile. The people mostly lived on vegetable diet "-Bombay Gaz. vol I pp 526-30. ४ "In the face of achievements of the Jain princes and generals of this period, we can hardly subscribe to the theory that Jainism & Buddhism were chiefly responsible for the military emasculation of the population, that led to the fall of the Hindu India "The Rastrakutas p 316-17.

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