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विश्व-स्वरूप
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भातिकी लीलाओके अध्ययनसे सम्यक् आचरणको जितना वल और प्रेरणा प्राप्त होती है, उतनी अन्य उपायोंसे नही । रेलका एंजिन जिस तरह वाप्पके विना अवरुद्ध गति हो जाता है, उसी तरह विश्व क्या है, उसमे मेरा क्या और कौन-सा स्थान है ? आदि समस्याओ के समाधानरूपी वलके अभाव मे जीवनकी रेल भी मुक्ति पथमे तनिक भी नही बढ़ती ।
जिस प्रकार आजका शिक्षित भौतिक शास्त्रोंके विषयमे सूक्ष्मसे सूक्ष्म गवेपणा और गोवका कार्य करता है तथा अपने कार्यमें अधिक सलग्नताके कारण वह अपने प्राणोका खेल करनेसे भी मुख नही मोड़ता, यदि उस प्रकारकी निष्ठा और तत्परता आत्म - विकासके जगभुत विश्वके रहस्य - दर्शनके लिए दिखाए तो कितना हिन न हो ? समय और शक्तिके अपव्ययकी विचित्र सूझ आत्माके सच्चे कल्याणकी वात सोचने-समझने मार्गमें उपस्थित की जाती है । किन्तु आत्माको विषय-भोगोमे फँसा परतन्त्र और दुखी बनानेवाली सामग्रीका सग्रह करना अथवा चर्चामे समस्त जीवनकी आहुति करना भी जीवनका सद्व्यय समझा जाता है - कैसी विचित्र बात है यह ।
यदि इस विपयका वैज्ञानिक किलेपण किया जाए तो विदित होगा कि दृश्य - जगत्मे सचेतन तत्त्व ( इसे उपनिषदोमे 'आत्मा' कहा गया है) और अचेतन तत्त्वोका सद्भाव है । 'सत्यं ब्रह्म, जगन्मिथ्या' - एक ब्रह्म ही तो सत्य है और शेष जगत् काल्पनिक सत्य है- स्पष्ट शब्दोंमें मिथ्या है, यह वेदान्तियोकी मान्यता वास्तविकतासे समन्वय नहीं रखती । आत्म-तत्त्वका सद्भाव जितने रूपमे परमार्थ है, उतने ही रूपमे अचेतन तत्त्व भी वास्तविक है । दार्शनिक विश्लेषणकी तुलापर सत्यकी दृष्टिसे सचेतन-अचेतन' दोनो तत्त्व समान है । अत. जगत्को मिथ्या माननेपर ब्रह्मकी भी वही गति होगी ।
१ पं० राहुलजीने इस विषयको असत्य रूपसे 'दर्शन-दिग्दर्शन' में लिखा है ।