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जैनशासन
होनेसे अनादि और अनिधन - अनन्त है। भला, जिन तत्त्वोकी अवस्थिति के लिए स्वयका वल प्राप्त है, दूसरे शब्दोमे जो स्वका अवलम्वन करनेवाले आत्म-शक्तिका आश्रय तथा सहयोग प्राप्त करनेवाले है, उनके भाग्य - निर्माणकी बात अन्य विजातीय वस्तुके हाथ सौपना अनावश्यक ही नही, वस्तु स्वरूपकी दृष्टिसे भयकर अत्याचार होगा। एक द्रव्य जो स्वय निसर्गत समर्थ, स्वावलम्बी, स्वोपजीवी है, उसपर किसी अन्य शक्तिका हस्तक्षेप होना न्यायानुमोदित नही कहा जा सकता। वास्तवमे देखा जाए तो जगत् पदार्थोके समुदायका ही नाम है, पदार्थपुञ्जको छोड विश्व नामकी और कोई वस्तु ही नही जो अपने स्रष्टाका सहारा चाहे । वस्तुका स्वाभाविक स्वरूप ऐसा है कि उसे अन्य भाग्य विधाताकी कोई आवश्यकता नही है, जिसकी इच्छानुसार वस्तुको विविध परिणमनरूप अभिनय करनेके लिए वाध्य होना पडे । विधाताके भक्तोके मस्तिष्कमे आदि तथा अन्तरहित स्रप्टाके लिए जिस युक्ति तथा श्रद्धा के कारण स्थान प्राप्त है ! वही औदार्य अन्य वस्तुओको अनादि निधन माननेमे प्रदर्शित करना चाहिए। इस प्रकार जव विश्व अनादि निधन है, तव बाsविलकी यह मान्यता कि "परमात्माने छह दिनमे सम्पूर्ण जगत्को वनाया, मनुष्यके आकारको बना फूक मारकर उसमे रूह पैदा कर दी, इस महान् कार्य के करने से श्रान्त होनेके कारण रविवारको वह विश्राम करता रहा ।" तार्किकताकी कसौटीपर अथवा दार्शनिक परीक्षण-अग्निमे नही टिक पाती ।
जिस प्रकार सचेतन तत्त्व अनादिनिधन है, उसी प्रकार अचेतन तत्त्व भी है। ब्रह्मरूप अण्डसे विश्वको जिस तरह एक मनोहर कल्पना मात्र है, जिसका सत्यसे कोई सम्बन्ध नही है, उसी तरह पश्चिमके पण्डित लाप्लास महाशयका यह कहना कि - "पहिले जगत्मे सचेतन-अचेतन नामकी वस्तु नही थी, न पशु-पक्षी थे, न मनुष्य थे और न दृश्यमान पदार्थ ही । पहिले सम्पूर्ण सौर मण्डल प्रकाशमान गैस रूपमे पिण्डित था, जिसे नेबुला ( Nebula ) कहते है। धीरे-धीरे शीतके निमित्त