________________
छक्खडागम ४९
बन्धविधान के चार भेद है -- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध, प्रदेशबन्ध । इन चार बन्धोमेंसे प्रकृतिबन्धके दो भेद है - मूलप्रकृतिवन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध | उत्तरप्रकृतिबन्धके दो भेद है— एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध और अन्वोगाढउत्तरप्रकृतिवन्ध । एकैकोत्तर प्रकृतिबन्धके चौबीस अनुयोगद्वार है । उनमें से जो समुत्कीर्तन नामक अधिकार है उसमेंसे प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थान - समुत्कीर्तन तथा तीन महादण्डक निकले है । और तेईसवें भावानुगमसे भावानुगम निकला है | अव्वोगाढ उत्तरप्रकृतिबन्धके दो भेद है - भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध | प्रकृतिस्थानवन्धके आठ अनुयोगद्वार है - सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इन आठ अनुयोगद्वारोमेंसे है अनुयोगद्वार निकले है-सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा । ये छै और बन्धक अधिकारके ग्यारह अधिकारोमेंसे द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकारसे निकला द्रव्यप्रमाणानुगम, तथा एकैकोत्त रप्रकृतिबन्धके चौबीस अधिकारोमेंसे तेईसवें भावानुगम अधिकारसे निकला भावानुगम, ये सब मिलकर जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वार होते है ।
स्थितिवन्धके दो भेद है— मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध | उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धके चौबीस अनुयोगद्वार है । उनमेंसे अर्धच्छेद दो प्रकारका है— जघन्यस्थिति अर्धच्छेद और उत्कृष्टस्थिति अर्धच्छेद । इनमें जघन्यस्थिति अर्धच्छेदसे जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति अर्धच्छेदसे उत्कृष्ट स्थिति निकली है । सूत्रसे सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक अधिकार निकला है । पहले जो एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध अधिकारके समुत्कीर्तना नामक प्रथम अधिकारसे प्रकृतिसमुत्कीर्तना, स्थानसमुत्कीर्तना और तीन महादण्डकोके निकलनेका उल्लेख कर आये है उन पाँचोमें अभी कहे गये जघन्यस्थिति अर्द्धच्छेद, उत्कृष्टस्थिति अर्द्धच्छेद, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति - आगति इन चार अधिकारोको मिला देने पर चूलिकाके नौ अधिकार होते हैं । इस सब कथनको मनमें अवधारण करके आचार्य पुष्पदन्तने 'एत्तो' इत्यादि सूत्र कहा है।' इस कथनसे केवल जीवस्थानकी ही नही, उसकी चूलिकाकी भी रूपरेखा पुष्पदन्ताचार्यकृत थी, ऐसा वीरसेनस्वामीका मत है । किन्तु समस्त छक्खडागमकी रूपरेखा उनकी निर्धारित की हुई ज्ञात नही होती ।
अतः समग्र सिद्धान्तग्रन्थकी रूपरेखाका निर्माण भूतवलिने ही किया जान पडता है क्योकि कृति अनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए १ 'तदो भूदवलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगागुग्गहट्ठ महाकम्मपयडिपाहुडमुवसहरिऊण छ+खडाणि क्याणि । - पटख, पु० ९, पृ० १३३ ।
४