Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 434
________________ ४२६ - जैनसाहित्यका इतिहास कालेण उवाएण य पच्चति जहा वणस्सुई फलाइ । तह कालेण तवेण य पच्चति कयाइ कम्माइ ॥३४५।। द्रव्यसंग्रहकी गाथा इस प्रकार है गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोय जह मच्छाण अच्छता णेव सो णेई ॥१७॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाण गच्छता णेव सो धरई ॥१८॥ x जह कालेण तवेण य भुत्तरस कम्मपुग्गलं जेण ।। इस तरह भावसग्रहका सादृश्य उक्त ग्रन्थोके साथ पाया जाता है और उनके अवलोकनसे कोई ऐसा विशिष्ट प्रमाण प्रकट नही होता जिसके आधार पर निसशय कहा जा सके कि अमुकने अमुकका अनुसरण किया है। अत उसके निर्धारणके लिये कुछ अन्य सवल प्रमाणोकी आवश्यकता है। पं० आशाधरजीने अपने सागार धर्मामृतकी टीका १२९६ वि० स० और अनगार धर्मामृतकी टीका वि०स० १३००में समाप्त की थी । अनगार धर्मामृतकी टीका उद्धरणोके लिये आकर सदृश है। उसमें बहुतसे ग्रथोके उद्धरण दिये गये है। उनमें गोम्मटसार, द्रव्यसग्रह और वसुनन्दि श्रावकाचारके अनेक उद्धरण है । देवसेनके आराधना सारके भी कई उद्धरण है, एक उद्धरण इस प्रकार है- - 'सवेओ णिब्वेमो जिंदा गरुहा य उपसमो भत्ती। वच्छल्ल अणुकपा गुणा हु सम्मत्तजुत्तस्स ।।-अनगा० टी०, पृ० १६४ । चामुण्डरायके चरित्रसार नामक ग्रन्थमें उक्त गाथाका संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है सवेगो निर्वेदो निंदा गर्दा तथोपशम भक्ती । अनुकपा वात्सल्य गुणास्तु सम्यक्त्वयुक्तस्य ॥ चामुण्डरायका समय विक्रमकी ११वी शताब्दीका पूर्वार्ध है । आशाधरजीने उक्त श्लोकको गाथाके रूपमें परिवर्तित करके दिया है यह तो सभव प्रतीत नही होता, क्योकि गाथाओको तो संस्कृत रूपान्तर करनेकी परम्परा रही है किन्तु । प्राचीन संस्कृत श्लोकोको गाथाके रूपमें परिवर्तित करनेकी परम्परा नही रही । अत आशाधरजीके द्वारा उद्धृत गाथा अवश्य ही चामुण्डरायसे पहलेकी होनी चाहिये । शायद उसीसे भावसग्रहकारने या वसुनन्दिने उसे परिवर्तित किया है । __ ऐसी स्थितिमें आशाधरके द्वारा भावसंग्रहका उद्धृत न किया जाना अवश्य ही उल्लेखनीय है।

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