Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 483
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४७५ प्रदीपिकाकी वादकी प्रतिलिपिकी समाप्तिका समय है, न कि स्वयं जी० प्रदीपिका रचनाकी समाप्तिका समय। अर्थात् डॉ० उपाध्येके लेखके अनुसार वि० स० १७०७ से पहले ही टीकाकी रचना हो चुकी थी । ऐसी स्थितिमें इस समस्याको सुलझानेके दो साधन हो सकते है, प्रथम, प्रशस्तिमें निर्दिष्ट वीर नि० सम्वत् की समीक्षा और दूसरा नेमिचन्द्रके द्वारा उल्लिखित अपने समकालीन व्यक्तियोकी छानवीन, जिनकी ओर डॉ० उपाध्येने इसलिये ध्यान देना उचित नही समझा कि चूंकि इन नामोके अनेक आचार्य और साधू जैन परम्परामे हो गये है। अत केवल नामोकी समानताके आधार पर कोई निर्णय करना खतरनाक हो सकता है।' किन्तु जब हम अन्य किसी आधारसे किसी निर्णय पर पहुँच जाते है तब यदि उसको आधार बना कर इस वातकी खोज की जाये कि उस समय पर इस नामके व्यक्ति हुए है या नही तो उससे निर्णयकी सारता या निस्सारता पर प्रकाश पडे विना नहीं रह सकता । अत हम उक्त दोनो साधनोसे प्रकृत समस्याको सुलझानेका प्रयत्न करते है दक्षिणमें प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्के सम्बन्धमें मतभेद है । और उस मतभेदका कारण है 'विक्रमाक शक' को विक्रम सम्वत् या शक सम्वत् समझा जाना, क्योकि त्रिलोकसारकी गाथा ८५० की टीकामे लिखा है कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्प ५ मास पश्चात् विक्रमाक शक राजा होगा। और विक्रम सम्वत् तथा शालिवाहन शक सम्वत्के वीचमें १३५ वर्षका अन्तर है। उत्तर भारतमें जो वीर नि० स० वर्तमानमें प्रचलित है वह उक्त कालको शालिवाहन शकका सूचक मानकर ही प्रचलित है और अनेक शास्त्रीय उल्लेख उसके पक्षमें है यहाँ उनकी चर्चासे प्रयोजन नही है । यहाँ तो यह बतलानेका प्रयोजन इतना ही है कि प्रेमीजी ने जो २१७७ वी० नि० स०में ६०५ वर्प घटाकर जो १३५ जोडे है यदि वे दक्षिणके मतभेदको दृष्टिमें रखकर न जोडे जायें, और उसे ६०५ घटानेसे जो शेप रहता है उसे विक्रम सम्वत् मान लिया जाये तो डॉ० उपाध्येके द्वारा निर्णीत और प्रशस्तिमें उल्लिखित कालमें जो सौ सवा सौ वर्षका अन्तर पडता है वह नही पडेगा । अथ त् २१७७ - ६०५ = १५७२ विक्रम सम्वत्में और १५७२ - ५७ = १५१५ ई० में नेमिचन्द्रने गोम्मट्टसारकी टीका समाप्त की। डॉ० उपाध्येने यही काल उसका निर्णीत किया है । अब हम दूसरे साधनको देखेंगेमूलसंध, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके भट्टारक श्रीज्ञानभूषण सागवाडे १ अनेकान्त, वर्ष ४, कि० १, पृ० १२० ।

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