Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 486
________________ ४७८ जैनसाहित्यका इतिहास लिखी हुई है। टीकाकी प्रगस्तिमे उसके रचयिताने अपनी गुरुपरम्पराके साथ उसका रचनाकाल भी दिया है। तदनुसार 'सवत् १६२० में टीकाकी रचना हुई थी। अत उक्त प्रति टीकाकी रचनासे ९० वर्ष पश्चात् की लिखी हुई है। रचयिताका परिचय टीकाको अन्तिम प्रगस्तिसे ज्ञात होता है कि सुमतिकीर्ति मूलसघके अन्तर्गत नन्दिसघ, बलात्कारगण और सरस्वती गच्छके भट्टारक ज्ञानभूपणके शिष्य थे। प्रशस्तिमें ज्ञानभूपणकी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है-पानन्दी, देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दी, मल्लिभूपण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र फिर ज्ञानभूपण । लक्ष्मीचन्द और वीरचन्दने तथा ज्ञानभूपणने सुमतिकीतिको दीक्षा और शिक्षा दी थी। ज्ञानभूपणके कहनेसे ही सुमतिकोतिने पञ्चसग्रहकी यह वृत्ति रची थी और ज्ञानभूपणने उमे शुद्ध किया था । अत यह ज्ञानभूपण भी वही है जिन्होने मिद्धान्तसार भाष्य और कर्मप्रकृति टीका रची है । तथा सुमतिकीति भी उन्हीके शिष्य है। जैसा कि ऊपर लिग्वा है विक्रम सं० १६२०में भाद्रपद शुक्ला दगमीके दिन ईलग्न (?) स्थानमें वृपभालय (ऋपभदेव मन्दिर)में टीकाकी समाप्ति हुई थी। प० परमानन्द जीने 'ईलख' को गुजरातका ईडर नामक स्थान बतलाया है । और लिखा है फि सुमतिकीति भी ईडरकी गद्दीके भट्टारक थे। इन्होने अपने गुरु ज्ञानभूपणके साथ कर्मकाण्ड (कर्मप्रकृति) की भी टीका रची थी, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। ___भ० सकलभूपणने वि०स० १६२७में अपनी उपदेश रत्नमाला समाप्त की थी। उसकी प्रशस्तिमें अपनी गुर्वावली देते हुए उन्होंने भट्टारक शुभचन्द्रका उत्तराधिकारी सुमतिकीतिको वतलाया है और अपनेको सुमतिकीतिका गुरुभाई कहा है । यह सकलभूपण शुभचन्द्रके शिष्य थे। १ 'दीक्षा शिक्षापद दत्त लक्ष्मीवीरेन्द्र (न्दु) सूरिणा। येन में ज्ञानभूषेण तस्मै श्री गुरवे नम ॥९॥ आगमेन विरुद्धं यद् व्याकरणेन दूपितम् । शुद्धीकृतं च तत्सर्वं गुरुभिर्ज्ञानभूपण ॥१०॥-जै०प्र०स०, पृ० १५६ । २ 'श्रीमद् विक्रम भूपते परिमिते वर्षे शते पोडशे, विंशत्यग्रगते सिते शुभतरे F भाद्रे दशभ्या तिथौ । 'ईला' वृपभालये वृषकरे सुश्रावके धार्मिके, सूरि श्रीसुमतीशकीतिविहिता टीका सदा नन्दतु ॥१३॥-जै०प्र०स०, पृ० १५६ । ३ जै०प्र०स०, प्रस्ता० पृ० ७५ । 'तदन्वये दयाम्भोधिर्ज्ञानभूषो गुणाकर । टीका हि कर्मकाण्डस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक् ॥२॥'-०प्र०स०, पृ० १५३ ।

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