Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 484
________________ ४७६ : जैनसाहित्यका इतिहास की गद्दीके भट्टारक थे। नन्दिसघ की पट्टावलीमे उनका विस्तारसे परिचय दिया है। उनके द्वारा रचित तत्त्वज्ञानतरगिणीको प्रशस्तिमे उसका रचनाकाल विक्रम सवत् १५६० दिया है । नेमिचन्द्रकी गोमटसार टीकाका जो रचनाकाल ऊपर दिया है उसके साथ इसका वरावर मेल साता है । तत्त्व ज्ञान तरगिणीसे गो० टीकाकी रचना वारह वर्पके पश्चात् हुई है। यह ज्ञानभूषण गुजरातके रहनेवाले थे और दक्षिण तथा उत्तरके प्रदेशो सम्मान्य थे। नेमिचन्द्र भी गुजरातसे ही चित्रकूट गये थे। नेमिचन्द्रको सूरिपद भट्टारक प्रभाचन्द्रने प्रदान किया था । वादिचन्द्रने वि० स० १६४० में अपना पार्श्व पुराण रचा था और वि० स० १६४८ में ज्ञान सूर्योदय नाटक रचा था, उन्होने अपने गुरुका नाम भट्टारक प्रभाचन्द्र लिखा है। तथा अपनेको ज्ञानभूपणका प्रशिण्य और प्रभाचन्द्रका शिष्य बतलाया है । इन्होने स्व रचित श्रीपालाख्यान नामके गुजराती ग्रन्थमें अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है-विद्यानन्दिके पट्टपर मल्लिभूपण, उनके पद पर लक्ष्मीचन्द्र, फिर वीरचन्द्र, ज्ञानभूपण, प्रभाचन्द्र और उनके पद पर वादिचन्द्र । ज्ञानभूपणके शिष्य सुमतिकीर्तिने अपनी पचसग्रह वृत्तिमे भी एक पद्यके द्वारा यही गुरु परम्परा दी है। तथा प्रेमीजीने लिखा है कि इस थीपालाख्यानकी प्रशस्तिमें जो लक्ष्मीचन्द और वीरचन्द है वे वही है जिनका उल्लेख ज्ञानभूपणने अपने सिद्धान्तसार भाष्यके मगलाचरणमें 'लक्ष्मीवीरेन्दु सेवित' पदसे किया है । अर्थात् तत्त्व ज्ञान तरंगिणीके रचयिता उक्त भट्टरक ज्ञनभूपणके शिष्य प्रभाचन्द्र भट्टारक थे और इन्ही प्रभाचन्द्र भट्टारकने नेमिचन्द्रको सूरि पद दिया था। अत इनकी सगति भी उक्त कालके साथ ठीक बैठ जाती है। इस तरहसे प्रेमीजीके द्वारा निर्दिष्ट प्रशस्तिमें जो गोमट्टसार टीकाका रचना काल वीर निर्वाण स० २१७७ दिया है उसमें ६०५ वर्ष कम करनेसे १५७२ को शक सम्वत् न लेकर वि० स० लेनेसे, वह टीकाका रचनाकाल उचित ठहरता है और उसकी सगति नेमिचन्द्रके द्वारा निर्दिष्ट समकालीन व्यक्तियोके साथ भी १ २ जै० सि० भा० की कि० ४, पृ० ४३-४५ । जै० सा० इ०, पृ० ३८७ । 'विद्यानन्दि गुरुयंतीश्वर महान् श्री मूलसघेऽनघे, श्रीभट्टारक मल्लिभूषणमुनिर्लक्ष्मीन्दुवीरेन्दुको । तत्प? भुवि भास्करो यतिवति श्रीज्ञानभूषो गणी तत्पाद द्वयपकजे मधुकर श्रीमत्प्रभेन्दुर्यति ॥१॥' -५० सं० वृत्ति० पृ० १२४ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509