Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 491
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४८३ को विपरीत मिथ्यात्वी बतलाया है। स० भा० सं० में वेदवादीको वेदान्तमिथ्यावी कहा है और ब्राह्मणकी तरह ही तीर्थस्न्तान, मासभक्षण आदिकी बुराईया बतलाई हैं । अन्तमें लिखा है 'इति वेदान्तोक्त विपरीत मिथ्यात्वम्' । सभवतया ग्रन्थकार वेद और वेदान्तके भेदसे परिचित नही थे ऐसा लगता है। प्रा० भा० स० में सशय मिथ्यात्वका निरूपण करते हुए श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिका कथन किया है किन्तु स० भा० स० में चूँकि इस नामका कोई मिथ्यात्व नही है और उसके स्थानमें जो एक शून्य मिथ्यात्व नाम गिनाया है उसकी उसमें कोई चर्चा नही की गई है। अत शेप मिथ्यात्वोका कथन प्रा० भा० सं० की ही तरह करनेके बाद पृथकरूप रूपसे श्वेताम्बर मतकी लत्पत्तिका कथन किया है और उसे स्वमतोद्भूत' (अपने मतमें उत्पन्न हुआ) मिथ्यात्व कहा है । प्रा० भा० स० में स्थविर कल्पका कथन करते हुए वर्तमान कालके मुनियोके सम्बन्धमें कहा गया है कि पहलेके मुनि उक्त सहननसे एक हजार वर्षमें जितनी कर्मनिर्जरा करते थे, आजकल हीन सहननमें उतनी कर्मनिर्जरा एक वर्षमें कर लेते है । स० भा० स० में इस गाथाका अनुवाद नही किया गया और यह उचित ही किया गया क्योकि इस प्रकारका कथन पूर्वशास्त्र सम्मत नही है । इसी तरह प्रा० भा० स० में काष्ठा सघ आदिके विरोधमें एक भी शब्द नही कहा गया है किन्तु स० भा० स०३ में एक श्लोकके द्वारा उन्हे मिथ्यात्वका प्रवर्तक कहा है। प्रा० भा० स० (गा० २८० आदि) में सम्यग्दर्शनके आठो अगोमें प्रसिद्ध व्यक्तियोके नाम गिनाये है । किन्तु स० भा० स० में आठों अगोका स्वरूप रत्नकरड श्रावकाचारके अनुसार उसीके शब्दोमे कहा है (श्लो० ४१०-४१७) अन्य भी कई विशेप कथन सम्यक्त्वके सम्बन्ध है । पचम गुणस्थानका कथन करते हुए स० भा० स० में ग्यारह प्रतिमाओका कथन है यह कथन प्रा० भा० स० में नही है। उसमें तो केवल बारह व्रतोके नाम गिनाये है प्रतिमाओके तो नाम तक भी नहीं गिनाये । स० भा० स०में दूसरी व्रत प्रतिमाका कथन करते हुए पूज्य पूजक और पूजा १ 'अयोध्वं स्वमतोद्भूत मिथ्यात्व तन्निगद्यते । विहित जिनचन्द्रेण श्वेताम्वर मताभिधम् ॥१८७।।'-स० भा० स० । २ 'वरिससहस्सेण पुरा ज कम्म हणइ तेण काएण । त सपइ वरिसेण हु णिज्ज रयइ हीणसहणणे ॥१३१॥'-प्रा० भा० सं०। ३ येचान्ये काष्ठसघाद्या मिथ्यात्वत्त्य प्रवर्तनात् । आयत्या प्राप्नुयु१ख चतुर्गतिषु सन्ततम् ॥२८५।।-स० भा० स० ।

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