Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 481
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४७३ तथा टीकाका आद्य मगलाचरण भी इसी वातका समर्थक है । उसका पूर्वार्द्ध 'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूपण' में जिनके विशेषण रूपसे प्रयुक्त नेमिचन्द्र और ज्ञानभूपण पद द्वयर्थक है । इन दो पदोके द्वारा टीकाकारने अपना और अपने गुरु ज्ञानभूपणका निर्देश किया है। ज्ञानभूपण और उनकी परम्परामें होने वाले ग्रन्थकारोने प्राय मगल पद्योमें अपना और अपने गुरुका नाम विशेपण रूपसे प्रयुक्त किया है । उदाहरणके लिये भ० ज्ञानभूपणने सिद्धान्तसार भाष्यके आदिमें जो मंगलाचरण किया है उसमें उन्होने अपना और अपने गुरू लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्रका नाम विशेपण रूपसे दिया है । यथा श्री सर्वज्ञ प्रणम्यादी लक्ष्मी-वीरेन्दु-सेवितम् । भाष्य सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूपणम् ॥ इस तरहके उदाहरण बहुत मिलते है । अत यह निर्विविवाद है कि जीवतत्त्व प्रदीपिकाके रचयिताका नाम नेमिचन्द्र था और वह ज्ञानभूपणके शिष्य थे। अब विचारणीय यह है कि वे हुए कब है ? समय विचार नेमिचन्द्रने अपनी प्रशस्तिमें जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी रचनाके समयका निर्देश नही किया है । किन्तु केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृत्तिको शक सम्वत् १२८१ में समाप्त किया था और चूकि नेमिचन्द्रकी जीवतत्त्वप्रदीपिका उसीका अनुसरण करते हुए रची गई है अत यह निश्चित है कि उसकी रचना शक स० १२८१ (वि० स० १४१६) के पश्चात् किसी समयमें हुई है। और प० टोडरमलजीने सं०जी०प्र० का के आधार पर हिन्दी टीकाका निर्माण वि० स० १८१८ या शक स० १६८३ में किया था अत जीव० प्र० उससे पहलेकी है यह भी निश्चित है। अब देखना यह है कि वि० सं० १४१६ से लेकर १८१८ तकके चार सौ वर्पोके अन्दर कव उसका निर्माण हुआ। उक्त प्रशस्तिमें कर्णाट प्राय देशके स्वामी मल्लिभूपालका नाम आया है। डा० उपाध्येने उसीके आधार पर सस्कृत जी०प्र० की रचनाका समय ईसाकी १६ वी शताब्दीका प्रारम्भ ठहराया है। उन्होंने लिखा है 'जैन साहित्यके उद्धरणो पर दृष्टि डालनेसे मुझे मालूम होता है कि मल्लि नामक एक शासक कुछ जैन लेखकोके साथ प्राय सम्पर्कको प्राप्त है । शुभचन्द्र गुर्वावलीके अनुसार विजय कीर्ति (ई० सन् की १६ वी शताब्दीके प्रारम्भमें) मल्लिभूपालके द्वारा सम्मानित हुआ था। विजयकोतिका समकालीन होनेसे उस मल्लिभूपालको १६ वी शताब्दी के प्रारम्भमें रखा जा सकता है। उसके स्थान और धर्म विषयका हमें परिचय १ अनेकान्त, वर्ष ४, वि० १, पृ० १२० ।

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