Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 480
________________ ४७२ · जैनसाहित्यका इतिहास पता चलता है कि सस्कृत जी०प्र० टीकाके कर्ता मूलसघ, शारदागच्छ बलात्कार गण, कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नायके नेमिचन्द्र है । वे ज्ञानभूपण भट्टारकके शिष्य थे। प्रभाचन्द्र भट्टारकने उन्हें सूरिपद प्रदान किया था। कर्णाटकके जैन राजा मल्लिभूपालकी भक्तिवश उन्हे मुनिचन्द्रने सिद्धान्त पढाया था । लाला वर्णीके आग्रहसे वे गुर्जर देशसे आकर चित्रकूटमें जिनदास शाह द्वारा निर्मापित चैत्यालयमें ठहरे । वहाँ उन्होने सूरि श्री धर्मचन्द्र, अभयचन्द भट्टारक और लाला वर्णी आदि भव्य जीवोंके लिये, खण्डेलवाल वशके साह सागा और साह सहेसकी प्रार्थना पर कर्णाट वृत्तिके अनुसार गोम्मटसारकी वृत्ति लिखी। उसकी रचनामें विविध विद्यामें विख्यात विशालकीति सूरिने सहायता की और उसे प्रथम वार हर्प पूर्वक पढा । विद्य चक्रवर्ती निर्ग्रन्थाचार्य अभयचन्द्रने उसका सशोधन करके उसकी प्रथम प्रति तैयार की थी।' ___ अत उक्त प्रशस्तिके अनुसार सस्कृत जीव तत्त्व प्रदीपिका टीकाके कर्ता नेमिचन्द है। गोम्मटसारके अन्तर्गत अध्यायोके अन्तमे जो सन्धि वाक्य है उनसे भी इस बातका समर्थन होता है । यथा-'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्रकृताया गोम्मटसारापरनामपञ्चमग्रहवृत्तौ' यहाँ नेमिचन्द्रकृताया पद 'वृत्तिका विशेषण है न कि गोम्मटसारका, क्योकि वृत्तिकी तरह वह भी स्त्रीलिंगमे प्रयुक्त हुआ है । किन्तु गोम्मटसारके रचयिताका नाम भी आचार्य नेमिचन्द्र था । अत किन्ही सन्धिवाक्योमें नेमिचन्द्र के साथ सिद्धान्तचक्रवर्ती पद जोड दिया गया है। यथा'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीविरचिताया गोम्मटसारपरनामपचसग्रह वृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्याया कर्मकाण्डे त्रिकरणचूलिका नाम अष्टमोऽधिकार ।' किन्तु यहाँ भी 'विरचिताया' पद जीवतत्त्व प्रदीपिका नामक वृत्तिका विशेषण है । अत ग्रन्थकार और टीकाकारके नाम साम्यके कारण उक्त प्रकारकी भूल हो गई है। नमस्यते ॥८॥ विविधविद्याविख्यात विशालकीतिसूरिणा । सहायोऽस्या कृतौ चक्रऽधीता च प्रथम मुदा ॥९॥ सूरे श्री धर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिन । वणि लालादिभव्याना कृते कर्णाटवृत्तित ॥१०॥ रचिता चित्रकूट श्रीपार्श्वनाथालयेऽमुना । साधुसागासहेसाभ्या प्रार्थितेन मुमुक्षुणा ॥११॥ गोम्मटसारवृत्तिहि नद्याद् भव्य प्रवर्तिता। शोधयन्त्वागमात् किंचित् विरुद्ध चेद् बहुश्रुता ॥१२॥ निर्गन्थाचार्यवर्येण विद्यचक्रवर्तिना । सशोध्याभयचन्देणालेखि प्रथम पुस्तक ॥१३॥'-गो०क०का०, पु० २०९७-९८ । इसके नीचे गद्य प्रशस्ति है जिसमें सक्षेप में वही वात प्राय कही है जो पद्योमें कही गई है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509