Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 478
________________ ४७० · जैनसाहित्यका इतिहास . वृतिके रचयिता केशववर्णीके गुरु अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती थे। परमागमसार शक स० १२६३ में पूर्ण हुआ और गो० कर्नाटक वृत्ति शक स० १२८१ में । दोनोमें केवल १८ वर्षका अन्तर है । अत ये दोनो अभयसूरि भी एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है । इन्हे श्रु तमुनिने परमागम आदिका पूर्ण ज्ञाता बतलाया है । ऐसी स्थितिमें मन्दप्रवोधिकाके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तीका अभयसूरिके साथ साक्षात्कार हो सकता है और सम्भवतया उसीके फलस्वरूप मन्दप्रवोधिकाके आधार पर केशववर्णीके द्वारा कर्नाटक वृत्ति रची गई हो । अस्तु, जो कुछ हो पर इतना सुनिश्चित है कि अनगार धर्मामृतकी टीकाके समाप्तिकाल वि० स० १३०० के पश्चात् और कर्नाटक वृत्तिकी समाप्तिके समय शक० स० १२८१ (वि० स० १४१६)से पूर्व अर्थात् विक्रमकी चौदहवी शताब्दीमे मन्दप्रवोधिकाकी रचना हुई। २ जीवतत्व प्रदीपिका वर्तमानमें पूरे गोम्मटसार पर उपलब्ध होने वाली पूरी और सुविस्तृत सस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका ही है । गोम्मटसारके अध्ययनके यथेष्ट प्रचारका श्रेय जीवतत्त्व प्रदीपिकाको ही प्राप्त है। पं० श्री टोडरमल जीने उसीको न केवल आधार बनाकर, बल्कि अनुदित करके अपनी हिन्दी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिकाकी रचना की थी। उन्होने अपनी टीकाकी पीठिकामें लिखा है-'एस विचारि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीयनामा पञ्चसग्रह ग्रन्थकी जीवतत्त्व प्रदीपिका नामा सस्कृत टीका ताकै अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा यहु देशभापामयी टीका करनेका निश्चय किया है ।' और गोम्मटसारके हिन्दी अर्णोजी और मराठीके सभी आधुनिक अनुवाद प० टोडरमल जीकी टीकाके आधार पर हुए है । अत इस सबका परम्पराश्रय जीवतत्त्व प्रदीपिका को ही है। किन्तु इस टीकाके कर्तृत्वको लेकर कुछ भ्रम फैल गया था। पं० टोडरमल जी ने अपनी हिन्दी टीकामें इस टीकाको केशववर्णीकी बतलाया है। उसीके आधार पर गोम्मटसारके आधुनिक टीकाकारोने भी उसे केशववर्णीकी बतलाया। प० टोडरमल जीके उक्त उल्लेखका कारण जीवकाण्डकी जीवतत्त्व प्रदीपिकाके अन्तमें पाया जानेवाला एक श्लोक है जो इस प्रकार है श्रित्वा कर्णाटिकी वृत्ति वर्णिश्रीकेशब कृति । कृतेयमन्यथा किंचिद् विशोध्यं तद्वहुश्रुत ॥१॥ इसका अनुवाद प० टोडरमलजी ने इस प्रकार किया है केशववर्णी भव्यविचार । कर्णाटक टीका अनुसार । सस्कृत टीका कीनी एहु । जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥१॥

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