Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 476
________________ ४६८ · जैनसाहित्यका इतिहास अभयचन्द्रने जी० का० की प्रथम गाथाकी मन्द प्रवोधिका टीकामें एक पद्य' उद्धृत किया है जो प० आशाधरके अनगार धर्मामृतके नौवें अध्यायका २६वा पद्य है। प० आगाधरने अपने अनगारधर्मामृतकी टीका वि० स० १३०० अर्थात् ई० सन् १२४३में समाप्त की थी। अत मन्दप्रवोधिककी रचना उसके बाद हुई यह निश्चित है । और चूँकि कर्णाटक वृत्तिकी समाप्ति ई० सन् १३५९ में हुई।' अत मन्द प्रवधिकाकी रचना सन् १२४३ और १३५९ के मध्यमें किसी समय हुई है । श्रवण बेलगोला और बेलूरके शिलालेखोमें निदिष्ट वालचन्द्र पण्डित और अभयचन्द पण्डित भी इसी समयमें हुए है । किन्तु श्रवणवेल गोलाके शिलालेखमें वालेन्दु पण्डितको अभयचन्द्रका शिष्य बतलाया है। और एक गुरु अपनी टीकामें अपने शिष्यके मतका उल्लेख 'इति वालचन्द्र पण्डित देवाना तात्पर्यार्थ' इस रूपमे नही कर सकता। किन्तु उसमें अभयचन्द्रको 'सिद्धान्ताम्भोधि सीतद्युति' विशेपण दिया है जो बतलाता है कि अभयचन्द्र सिद्धान्तरूपी समुद्रके लिये चन्द्रमाके तुल्य थे । मत ई० सन् १३१३ के शिलालेखमें निर्दिष्ट अभयचन्द्र मन्द प्रबोधिकाके कर्ता होना चाहिये । प्रश्न केवल वालचन्द्र पण्डितदेवको उनका शिष्य बतलानेका रह जाता है । इस सम्बन्धमें परमागमसारके रचयिता श्रुतमुनिने जो अपनी प्रशस्ति उसके अन्तमें दी है वह भी यहाँ उल्लेखनीय है । परमागमसारकी समाप्ति शक स० १२६३ में हुई है । प्रशस्तिमें लिखा है-श्रुतमुनिके अणुव्रत गुरु बालेन्दु, महाव्रत १ 'उच्यते, 'नेष्ट वितुं शुभभावभग्नरसप्रकर्प प्रभुरन्तराय । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदाहदादे ।" इति वचनेन ।-म० प्रवो० । 'तच्छिष्यश्चरुकीर्ति प्रथितगुणगण पण्डितस्तस्य शिष्य , ख्यात श्रीमाघनन्दिव्रतिपतिनुतभट्टारकस्तस्य शिष्य । सिद्धान्ताम्भोधिसीतद्युतिरभयशशी तस्य शिष्यो महीयान् बालेन्दु पण्डितस्तत्पदनुतिरमलो रामचन्द्रोऽमलाङ्ग ॥१६॥' -शिला० स०, भा० १, पृ० ३२ । 'अणुवद गुरुबालेंदू महन्वदे अभयवद सिद्धति । सत्येऽभयसूरि पहा (भा) चदा खलु सुयमुणिस्स गुरु ।।२२५॥ सिरिमूलसघ-देसियगण-पुत्थयगच्छ कोडकुदाणं । परमण्ण-इंगलेसर बलिम्मि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥२२६॥ सिद्धताहयचदस्स य सिस्सो वालचंद मुणिपवरो। सो भविय कुवलयाण आर्णदकरो सया जयउ ॥२२७॥ प्रश० सं० भा० १, पृ० १९१ । .

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