Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 475
________________ उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ४६७ उद्धरणमें अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीका नाम भी है जिससे किसी प्रकारका सन्देह नही रहता । अत गोमट्टसारकी उपलब्ध इन तीनो टीकाओमें मन्द प्रवोधिका आद्य टीका है | शेप दोनो टीकाए उसीके आधार पर वनी है । इस दृष्टि से उस टीका और उसके कर्ताका महत्व स्पष्ट है । कर्ता और रचनाकाल मन्द प्रबोधिका कर्ताका नाम अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती है । उनकी टीकासे उनके तथा रचनाकालके सम्बन्धमें कोई सकेत तक नही मिलता । किन्तु चूकि कर्नाटक वृत्तिमे उनका उल्लेख है अत यह निश्चित है कि कर्णाटकवृत्तिसे पहले मन्द प्रबोधिकाकी रचना हो चुकी थी । कर्णाटकवृत्तिके रचयिता केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे और उन्होने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक स० १२८१ या ईस्वी सन् १३५९ में लिखी थी । ऐसा डॉ० उपाध्येने अपने उक्त लेखमें लिखा है । मत निश्चय ही मन्द प्रवोधिकाकी रचना उससे पहले हुई है । किन्तु कितने समय पहले हुई है यह चिन्त्य है । अभयचन्द्रने जीवकाण्ड गा० ५६-५७की मन्दप्रवोधिका' टीकामें श्रीबालचन्द्र पण्डितदेवका निर्देश किया है | श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखमे जो ई० सन् १३१३ का है वालेन्दु पण्डितका उल्लेख है । डॉ० उपाध्येने अभयचन्दके द्वारा निर्दिष्ट बालचन्द्रको और श्रवणबेलगोलाके शिलालेखमें स्मृत बालेन्दु पण्डितको एक ही व्यक्ति माना है । उन्होने यह भी लिखा है कि 'इसके अतिरिक्त उनकी पदवियो- उपाधियो और छोटे-छोटे वर्णनोसे जो कि उनमें दिये हुए है, मुझे मालूम हुआ है कि हमारे अभयचन्द्र और बालचन्द्र, सभी सम्भावनाओको लेकर वे ही है जिनकी प्रशसा वेलूर शिलालेखो में की गई है और जो हमें बतलाते है कि अभयचन्द्रका स्वर्गवास ईस्वी सन् १२७९ में और वालचन्द्रका ईस्वी सन् १२७४ हुआ था ।' में इस तरह डॉ० ० उपाध्येने अभयचन्द्रकी मन्द प्रबोधिकाका समय ईस्वी सन्की तेरहवी शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया है । जो अन्य प्रमाणसे भी समर्थित होता है । १ 'पुनरपि कथभूता ? विमलतरध्यानहुतवह शिखाभिनिर्दग्धकर्मवना प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिसामर्थ्येनायुवजितसप्तकर्मणां गुणश्रेणि गुण सक्रम स्थित्यनुभागकाण्डकघातै षोडशप्रकृतिक्षपणेन मोहनीयस्याष्टकपायादिक्षपणेन वादरसूक्ष्मकृष्टिविधानेन अन्यैश्चोपायै आत्मन श्रेयोमार्गभ्रान्तिहेतुं इति श्रीवालचन्द्र पण्डितदेवाना तात्पर्यार्थ । म प्रवो० । २ वही लेख अने० वर्ष ४, कि० १ । •

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