Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 474
________________ ४६६ : जैन साहित्यका इतिहास १ मन्दप्रबोधिका टीका मन्द प्रवोधिकाका नाम सार्थक है । टीकाकारने ययासभव सक्षेपमें प्रत्येक गाथाका अर्थ दिया है और जहां स्पष्टीकरणके लिये विशेष कथनकी आवश्यकता प्रतीत हुई वहीं विशेष कथन किया है । सस्कृत भी मरल है विशेष कठिन नही है । प्रथम मंगल गाथाका व्याख्यान करते हुए चामुण्डरायके प्रश्नको इस ग्रन्थके निर्माणमें निमित्त वतलाया है । गुरु शिष्य परम्परासे प्रवर्तित उपदेशको हेतु चतलाया है | गाथा सूत्रोका परिमाण ७२५ बतलाया है और ग्रन्थका नाम जीवकाण्ड, जीवप्ररूपण अथवा जीवस्थान वतलाया है । कर्ताके तीन भेद किये है-— मूलतत्रकर्ता भगवान महावीर, उत्तर तथकर्ता गोतम गणधर और उतरोत्तर तत्रकर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीको कहा है । टीकाके अवलोकनसे टीकाकारके सिद्धान्त विषयक ज्ञानकी गम्भीरता प्रकट होती है । किन्तु उनके सिद्धान्त चक्रवर्तित्वमे सन्देह होता है । मगलके प्रकरणम उन्होने लिसा' है कि गौतम गणधरने वेदना सण्डके आदिमें 'णमो जिणाण आदि मगल किया है । किन्तु धवला ( पृ० ९, १०३ ) मे लिसा है कि गौतम गणधरने महाकर्म प्रकृति प्राभृतके आदिमे णगोजिणाण आदि मगल किया था और वहाँसे लाकर भूत बलि भट्टारकने उसे वेदना खण्डके आदिमें रखा । अभयचन्द्रजी या तो भूलसे वैसा लिख गये है या फिर उन्होने धवलाका पूरा अनुगम नही किया प्रतीत होता । किन्तु उनका सिद्धान्त विषयक ज्ञान परिपूर्ण था । इसमें सन्देह नही है । जीवतत्त्व प्रदीपिका में तो उनका अनुसरण किया ही गया है किन्तु जिस कर्णाटवृत्तिके आधार पर जीवतत्त्व प्रदीपिकाको रचनेकी प्रतिज्ञा टीकाकारने की है उस कर्णाटवृत्तिको रचना भी मन्द प्रबोधिकाके साहाय्यकी ऋणी है यह वात डा० ए० एन० उपाध्येने अपने लेखमें दोनो टीकाओंसे एक उद्धरण देकर स्पष्ट की है । वह उद्धरण जीवकाण्डकी गा० १३ की टीकाका है । कर्नाटकटीकावाले १ 'श्रीमद् गौतम गणधरपादैरपिवेदनाखण्डस्यादो णमोजिणाणमित्यादिना' - गो० म० प्र० टी०, पृ० १४ । २ 'महाकम्मपर्याड पाहुडस्स कदियादि चउवीस अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परुविदस्त भूदवलिभडारएण वेयणाखण्डस्स आदीए मगलट्ठ तत्तो आणेण ठविदस्स' । षट्खं, पु०, ९, पृ० १०३ । 2 ३ गो० जी० प्र० टीका, उसका कर्तृत्व और समय - अनेकान्त, वर्ष ४, कि० १, पृ० ११३ ॥ f

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