Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 452
________________ ४४४ • जैनसाहित्यका इतिहास चार है-मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग । मिथ्यात्वके ५ भेद है अविरतिके १२ भेद है, कपायके २५ और योगके १५ भेद है। इस तरह मूल प्रत्यय चार है और उत्तर प्रत्यय ५७ है । इनके निमित्तसे कर्मोका आस्रव होता है। ये आस्रव प्रत्यय किस गुणस्थानमें कितने होते है, कितने नही होते और कितने प्रत्यय उसी गुणस्थान तक होते है आगे नही होते, इन तीन भगोका कथन होनेसे इसका नाम आस्रवत्रिभगी है। इसमें कुल ६२ गाथाएं है और साथमें सदृष्टियाँ भी है। श्रुतमुनिका परिचय और समय श्रुतमुनिने अपने भावविभगी अथवा भावसग्रह नामकग्रन्थके अन्तमें अपनी प्रशस्ति दी है उससे ज्ञात होता है कि श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु वालेन्दु या वालचन्द्र थे और महावतगुरु अभयचन्द्र सैद्धान्तिक थे। तथा शास्त्र गुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र नामक मुनि थे। इनका परिचय कराते हुए श्रुतमुनिने लिखा है कि कुन्दकुन्दान्वयके मूलसघ, देशगण, पुस्तकगच्छकी इगुलेश्वर शाखामें हुए मुनि प्रधान अभयचन्द्र सैद्धान्तिकके शिष्य वालचन्द्र मुनि थे । और शब्दागम, परमागम, तांगमके पूर्णज्ञाता अभयसूरि सैद्धान्तिक थे। तथा सारत्रयमें निपुण, शुद्धात्मामें लीन और भव्य जीवोका प्रतिवोध करनेवाले प्रभाचन्द्र नामक मुनि थे।' श्रुतमुनिने वालचन्द मुनि और अभयसूरि सिद्धातका जयघोष करनेके वाद दो गाथाओके द्वारा चारुकीति मुनिका भी जयघोष किया है। श्रुतमुनिके द्वारा रचित एक ग्रन्थ परमागमसार है उसमे भी उक्त प्रशस्ति 'अणुवदुगुरु बालेन्दु महन्वदे अभयचद सिद्धति । सत्येऽभयसूरि पभाचंदा खलु सुयमुणीस गुरु ॥११७॥ श्रीमूलसघ देसियगणपुत्थयगच्छकोडकुदाणं । परपण्णइगलेसरवलिम्हि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥ सिद्धताभयचदस्स य सिस्सो वालचदमुणिपवरो। सो भन्वकुवलयाणं आणंदकरो सया जयउ ॥११९॥ सदागम-परमागम-तक्कागम णिरवसेसवेदी हु । विजिदसयलण्णवादी जयउ चिर अभयसूरि सिद्धती ॥१२०॥ णयणिक्खेवपमाण जाणित्ता विजिदसयलपरसमओ। वरणिवयिणि वह वंदियपयपम्मो चारुकीत्तिमुणी ॥१२१॥ णाद णिक्खिलत्थसहो सयलरिदेहिं पूजियो विमलो। जिणमग्गगयणसूरो जयउ चिरं चारुकित्तिमुणी ॥१२२॥ वरसारत्तयणिउणो सुद्धप्परओ विरहियपरभावो । भवियाणं पडिवोहणपरो पहाचदणाम मुणी ॥१२३॥'-भा० त्रि० प्रश० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509