Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 460
________________ ४५२ : जनसाहित्यका इतिहास सिद्धान्तमाफी कनडी टीके कर्ता प्रभाचन्द्रका गमय तेरहवी शतान्दो अनुमान किया गया है, अतः बारहवी शताब्दीके लगभग गिलान्तमार रचा गया होना चाहिये। सकलकीतिका कर्मविपाक सालकीति विरनित कर्मविपात गम्गत भागामे रचित एक गुन्दर गरल ग्रन्य है। इसमे प्रतिबन्ध, रिगतिवा, अनुभागन्ध और प्रदेशबन्धका माधारण कथन है। अधिकतर मगन गम है। प्रत्येक प्रकरण प्रारम्भमे श्लोक है जो नमस्कारागा है। प्रतिबनगम कोंकी उत्तर प्रहानियों के लक्षण विस्तारसे कहकर मिथ्यावृष्टि गुणरथानामे प्रगतिगाके बना और अबन्धका कथन को स्पष्ट रूपम किया है, केवल गरया न बतलाार प्रानियां नाग गिनाये है। फिर स्थितिबन्धका कथन है । उगर्ग प्रत्येक प्रकृतिको उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति विस्तारगे वतलाई है। फिर अनुभाग बन्धका कथन है। और फिर प्रदेशवन्यका कगन है। उनमें पता करे बन्यो कारणीका यन तन्यायमूत्र तथा उगकी टीकाओके आधारले छिया है। अन्तमें गुणगानीमें प्रकृतियां क्षयका गायन किया है। उग ग्रन्यमें तो सकलगीतिने अपना कोई परिनग नहीं दिया। किन्तु अन्य ग्रन्थकारोने इनका म्गरण बडे आदरके गाय किया है। इसका कारण यह है कि यह मूलराघ, बलात्कारगण और गरस्वती गच्छी उरकी गहीने भट्टारक थे। इनकी गिण्य परम्परामें अनेक विद्वान भट्टारक ग्रन्यकार हुए है और उन्होंने अपने पूर्वज सकलकोतिका म्मरण वडे आदरके साथ किया है। कामराजकृत जयपुराणकी प्रगस्तिमें लिया है कि सकलकोति भट्टारकने गुजरात और वागड आदि देशोमे जैनधर्मका उद्धार किया था। भ० सकलकीर्ति के शिष्य और लघुभाता ७० जिनदाराने भी अपने ग्रन्थोमें सकलकोतिका स्मरण वडे गौरवके साथ किया है । प० परमानन्दजीने लिखा है कि स० १४४४ में वह ईडरकी गद्दी पर बैठे थे और म० १४९९ के पूपमासमें उनकी मत्यु महसाना (गुजरात) में हुई थी। महसानामें उनका समाधि स्थान भी वना हुआ है । ५० १ 'आचार्य कुन्दकुन्दाख्यस्तस्मादनुक्रमादभूत् । स सकलकीर्ति योगीशो ज्ञानी भट्टारकेश्वर ॥२१॥ येनोद्धृतो गतो धर्मो गुर्जरे वाग्वरादिके । निर्ग्रन्थेन कवित्वादि गुणानेवार्हता पुरा ॥२२॥ -जै० प्र० स० भा १, पृ० ४० । २ जै० स० १ भा०, प्रस्ता, ४०१०-११ ।

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