Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 465
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४५७ १५३६ तक तो अवश्य ही भट्टारक पद पर विराजमान थे । और वे स० १५२३ के पश्चात् और १५२६ से पहले किसी समय भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किये गये थे। तथा स० १५५७ में उनके शिष्य विजयकीति उस पद पर थे। सूरतके' मन्दिरकी एक जिनविम्ब पर स० १५४४ का लेख है । लेखसे प्रकट है कि वह मूर्ति भुवनकीर्तिके शिष्य ज्ञानभूषणके उपदेशसे प्रतिष्ठितकी गई थी। अत स० १५४४ तक ज्ञानभूपण भट्टारक पद पर थे। उधर सुमतिकीर्तिने अपनी पचसग्रह वृत्तिके अन्तमे उसका रचना काल स० १६२० दिया है । यह वृत्ति भ० जानभूपणकी प्रेरणासे रची गई थी और उन्होने उसका सशोधन भी किया था । अत यह स्पष्ट है कि वि० स० १६२० में ज्ञान भूपण जीवित थे । उधर ज्ञानभूपण वि० स० १५२६में भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित थे और वि० स० १५२३ के पश्चात् वे गद्दी पर बैठे थे। यदि यही मान लिया जाये कि वे स० १५२५ में गद्दी पर बैठे थे और उस समय उनकी उम्र १५ वर्ष भी मानी जाये तो पञ्चसग्रहवृत्तिको रचनाके समय उनकी उम्र ११० वर्ष ठहरती है। एक तो इतनी छोटी अवस्थामें भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित होना और फिर इतनी लम्बी उम्रका होना चित्तको लगता नही। फिर यदि ज्ञानभूपणकी दूसरी गुरु परम्परा सामने न होती तो उक्त दोनो वातोको भी अगीकार किया जा सकता था। किन्तु दूसरी परम्परा न केवल ग्रन्थ प्रशस्तियोमें किन्तु मूर्तिलेखोमें भी अकित मिलती है। बुद्धिसागर सूरिके जैनधातु प्रतिमालेख सग्रहमें ही दोनो परम्पराओके मूर्तिलेख मिलते है जो इस प्रकार है । न० ६७४–स० १५३५ वर्षे पोप व० १३ श्रीमूलसघे सरस्वतीगच्छे भ० श्री सकलकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री भुवनकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् ।' न० ७५७–'स० १६३० वर्षे चैत वदि ५ श्री मूलसघे श्री सरस्वती गच्छे श्री बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री वीरचन्द भ० श्री ज्ञानभूषण भ० श्री प्रभाचन्द्रोपदेशेन । इस तरह पहले वाले ज्ञानभूपणके गुरुका नाम भुवनकीर्ति था और दूसरे ज्ञानभूषणके गुरुका नाम वीरचन्द था। श्री कामता प्रसादजीके द्वारा सम्पादित प्राचीन जैनलेख संग्रह (१ भाग) में अलीगजके जैनमन्दिरकी एक मूर्तिके तलमें भी दूसरे ज्ञानभूषणसे सम्बद्ध एकलेख अकित है । किन्तु उसमें सम्बत् नही है । यह मूर्ति वीरचन्द्रके शिष्य ज्ञानभूषणके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थी। शिलालेख इस प्रकार है१ 'स० १५४४ वर्षे वैशाख सुदी ३ सोमे श्रीमूलसघे भ० श्री भुवनकीर्तिस्त पट्ट भ० श्रीज्ञानभूपण गुरुपदेशात् । -दान० माणि० पृ० ४५ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509