Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 453
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४५ दी है किन्तु उसमें उसका रचनाकाल भी दिया है जो शक स० १२६३ (वि० स० १३९८) है अत श्रुतमुनि विक्रमकी चौदहवी शताब्दीके उत्तरार्धमें हुए है । श्रवणवेल गोलाके विन्ध्यगिरि पर्वतके एक शिलालेख न० १०५ में अभयचन्द्रके शिष्य श्रुतमुनिकी बडी प्रशंसा की गई है। इसमें चारुकीर्ति और अभयसूरिकी भी प्रशसा है । अत यह श्रुतमुनि ही प्रतीत होते है । यह शिलालेख शक स० १३२० का है अर्थात् परमागमसारकी रचनाके ५७ वर्ष पश्चात् का है । चन्द्रगिरि पर्वत परके एक अन्य शिलालेखमें भी अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द्र पण्डितका उल्लेख है । यह शिलालेख शक स० १२३५ का है । ये दोनो श्रुतमुनिके व्रत गुरु ही प्रतीत होते है । इन्ही अभयचन्द्रको डॉ० उपाध्येने गोम्मटसारकी मन्द प्रवोधिकाका रचयिता माना है। किन्तु वेलूर शिलालेखोके आधारपर अभयचन्द्रका स्वर्गवास सन् १२७९ में और वालचन्द्रका ईस्वी १२७४ में बतलाया है जो ठीक प्रतीत नही होता । मन्द प्रबोधिकाकी रचनाके समयकी चर्चामें इसपर प्रकाश डाला गया है । केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृति शक स० १२८१ में बनाकर समाप्त की थी। केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे। अभयसूरि श्रुतमुनिके शास्त्र गुरु प्रतीत होते है । क्योकि परमागमसारकी रचनाके १८ वर्ष वाद केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृति समाप्त की थी। अत श्रुतमुनिके वह लघु समकालीन थे, यह निश्चित है। पचसग्रहकी प्राकृत टीका पञ्चसग्रह पर एक प्राकृत टीका है उसकी जो प्रति हमारे सामने है उसमें उसका लेखनकाल सवत् १५२६ दिया है। यह टीका किसने कब रची इसका कोई पता उससे नही चलता। किन्तु इतना निश्चित है कि धवला टीकाके पश्चात् ही उसकी रचना हुई है क्योकि टीकाके प्रारम्भमें धवलाकी तरह मगल निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता की चर्चा है जो धवलासे ली गई है किन्तु यथास्थान उसमें कुछ काट-छाट कर दी गई है। उल्लेखनीय बात यह है कि ग्रन्थका नाम बतलाते हुए 'आराधना' नाम बतलाया है । यथा 'तत्थ गुणणाम आराहणा इदि । किं कारण ? जेण आराधिज्जते अणआ दसण-णाण-चरित्त-तवाणि त्ति ।' इससे प्रतीत होता है कि आराधना भगवतीको प्राकृत टीकाका यह आद्यश १ 'सगगा (का) ले हु सहस्से विसयतिसट्ठिगदे दुविसवरिसे। मग्गसिर सुद्ध सत्तमि गुरुवारे गथ सपुण्णो ॥२२३॥-जै० प्र० सं०, भा० १, पृ० १९१ । २ शि० सं०, भाग १, पृ० २०१ ।

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