Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 454
________________ ४४६ : जैनसाहित्यका इतिहास होना चाहिये । भगवती आराधनाकी विजयोदया' टीकामें प्राकृत टीकाका उल्लेख है। किन्तु वह टीका धवलासे प्राचीन होनी चाहिये, अत उसमें धवलाकी अनुकृतिकी सभावना नहीं की जा सकती। सम्भव है धवलाके बाद किसीने उस पर कोई प्राकृत टीका रची हो । किन्तु यह सब अनुमान मात्र है । ___ अन्य सब कथन धवलासे लेने पर भी उसके रचयिताने कर्ताके विपयमें परिवर्तन कर दिया है। धवलामें कर्ताके दो भेद बतलाये है अर्थकर्ता और ग्रथकर्ता । किन्तु इसमें तीन भेद बतलाये है, मूलतंत्रकर्ता, उत्तरतत्रकर्ता और उत्तरोत्तरतंत्रकर्ता । तथा भगवान महावीरको मूलतत्रकर्ता, गौतम गणधरको उत्तरतत्रकर्ता और लोहाचार्य तथा भट्टारक 'अप्पभूदिम' आचार्यको उत्तरोत्तर तत्रकर्ता लिखा है । यथा 'कत्तारा तिविधा मूलततकत्ता, उत्तरततकत्ता, उत्तरोत्तरततकत्ता चेदि । तत्थ मूलततकत्ता भगव महावीरो। उत्तरततकत्ता गोदम भयवदो । उत्तरोत्तर ततकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्पभूदिम आयरिया ।' ___ यहाँ उत्तरोत्तर तत्रकर्ता जो भट्टारक 'अप्पभूदिन' आचार्य का नाम दिया है, वह टीकाके कर्ताके अन्वेषणकी दृष्टि से चिन्त्य है। आगे श्रुतज्ञान रूपी वृक्षका वर्णन है उसमें बारह अंगो और चौदह पूर्वोका कथन धवलासे प्राय ज्योका त्यो ले लिया गया है। और अन्तमें लिखा है'एव श्रुतवृक्ष समाप्त ।' इसके पश्चात् पचसग्रह गत प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार आता है। पञ्चसग्रहमें इसका नम्बर दूसरा है और जीवसमास नामक अधिकारका पहला । किन्तु . इस टीकामें प्रकृति समुत्कीर्तनको पहला स्थान दिया है। प्राय प्रत्येक अधिकारमे टीकाकार पहले ग्रन्थका मूलभाग जो प्राय अधूरा होता है, देता है। फिर उसका व्याख्यान करता है। प्रत्येक गाथाका अलगअलग व्याख्यान करनेकी पद्धति टीकाकारने नही अपनाई है। प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें प्रकृतियोका स्वरूप निरूपण प्राकृतगद्यमें बहुत सुन्दर रीतिसे किया गया है । और बीच-बीचमें कुछ गाथाएँ भी ग्रन्थान्तरसे उद्धृत की गई है। टीकामें धवलाकी तरह प्राकृतके साथ यत्रतत्र सस्कृत भापाका भी उपयोग १ इसके परिचय तथा उल्लेखोके लिये देखें-जै०सा० इ० पृ० ८४ आदि । इयमूलततकत्ता सिरिवीरो इदभूदि विष्पवरो। उवतते कत्तारो अणुतते सेस आइरिया ।।८०॥-त्रि० प०, अधि० १ ।

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