Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 436
________________ ४२८ · जैनसाहित्यका इतिहास यदि भावसग्रह विक्रमकी दसवी शताब्दीके अन्तमें रचा गया होता तो उस समयके लगभग रचे गये श्रावकाचारोमेंसे किसी एकमें तो उन बातोकी प्रतिध्वनि सुनाई पडती जिन्हें भावसग्रहकारने स्थान दिया है। किन्तु उस समयकी कृतियोमें उन बातोका सकेत तक नही है। उनके द्वारा निरूपित पूजा विधानकी विधि भी सागार धर्मामृत पर्यन्त किसी श्रावकाचारमें देखनेको नहीं मिलती। ___ भावसग्रहमें स्त्री वाहनादियुक्त दश दिग्पालोको अर्घ्यदान देनेके सिवाय एक उल्लेखनीय बात और भी है। उत्तमपात्रोमेंसे कुछको वेदमय' और कुछको तपोमय कहा है । और वेदका अर्थ सिद्धान्त करके सिद्धान्तके जानकारको वेदमय पात्र और तपस्वी ज्ञानीको तपोमय पात्र कहा है। इस तरहका भेद भी किसी श्रावकाचारमें नही मिलता। वैसे सागार धर्मामृतमे शास्त्रज्ञोका भी समादर करना पाक्षिक श्रावकका कर्तव्य बतलाया है। एक बात और भी उल्लेखनीय है। भावसग्रहमें पशुवधका निषेध करते हुए कहा है कि हरिहरादिके भक्तोके शास्त्रोमें कहा है कि सब जीवोके पाच स्थानोमें देवताओका आवास है । तो उनके मारनेपर सव देवताओका भी धात होगा। आगेकी गाथा इस प्रकार है देवे वहिऊण गुणा लन्भहि जइ इत्थ उत्तमा केई । तु रुक्कवदणया अवरे पारद्धिया सव्वे ॥४८॥ केकडीके प० रतनलालजीने हमें सूचित किया है कि अजमेरकी प्रतिमे 'वहिऊण' के स्थानमे 'हणिऊण' तथा 'तु रुक्कवदणया' के स्थानमे 'तो तुरुक्कवदणीया' पाठ है। ___ इन पाठोसे गाथाका अर्थ स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार है-'यदि देवोका हनन करनेसे किन्ही उत्तम गुणोकी प्राप्ति होती है तो तुर्क (मूर्तिभजक मुसलमान) तथा सब शिकारी भी वदनीय है । इससे स्पष्ट है कि भावसंग्रह उस समय रचा गया है जब भारतमें मुसलमानोका आक्रमण हो चुका था। प्रसिद्ध मूर्तिभंजक मुहम्मद गजनीने ई० स० १०२३ में सोमनाथका मन्दिर तोडा था । उसके बाद बारहवी शताब्दीमें सहाबुद्दीन गौरीके आक्रमण हुए थे । उसकी चर्चा आशाधरजीने अनगार धर्मामृतकी प्रशास्तिमें की है। अत यह निश्चित है कि भावसग्रह वि०स० ९९० (ई० सन् ९३३)की रचना किसी भी तरह हो नही सकती। ____ अत भावसग्रहके देवसेन (वि० ९९०) की रचना होनेके सम्बन्धमें अनेक विप्रतिपतियाँ है और कोई सबल प्रमाण नही है । १ किं किंचिवि वेयमय किंचिवि पत्त तवोमयं परम । त पत्तं संसारे तारणय होइ णियमेण ॥५०५॥-भा० स०

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