Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 435
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४२७ यदि भावसग्रह दर्शनसारके रचयिता देवसेनका है तो सोमदेवके उपासकाध्ययनसे वह अवश्य ही एक चतुर्थ शताब्दी पूर्वका है क्योकि सोमदेवने अपने यशस्तिलकको शक स० ८८१ (वि० स० १०१६) में समाप्त किया था । सोमदेव सूरिने जो पाँच उदुम्बर और तीन मकारोके त्यागरूप अष्टमूल गुण बतलाये है भावसग्रहमें भी वे ही अष्टमूल गुण बतलाये है । अत उन अष्टमूल गुणोके आविष्कर्ता भावसग्रहकार ठहरते है, सोमदेव नहीं। किन्तु सागार धर्मामृतमें अष्टमूल गुणोके मतभेदका निर्देश करते हुए आशाधरजीने उक्त अष्टमूल गुणोको सोमदेव सूरिका बतलाया है । भावसग्रहकारका वहाँ सकेत तक नही है। सागार धर्मामृतके ही टिप्पणमें एक गाथा उद्धृत है जो इसप्रकार है 'उत्तम पत्त साहू मज्झिमपत्त च सावया भणिया । अविरद सम्माइट्ठी जहण्णपत्त मुणेयन्वम् ॥' भावसग्रहमें इस गाथाको इस रूपमें परिवर्तित पाया जाता है तिविह भणति पत्त मज्झिम तह उत्तम जहण्ण च । उत्तमपत्त साहू मज्झिम पत्त च सावया भणिया ।।४९७॥ अविरइ सम्मादिट्ठी जहण्णवत्त तु अक्खिय समये । णाऊ पत्तविसेस दिज्जइ दाणाइ भत्तीए ॥४९८॥ ऐसी स्थितिमें वसुनन्दिके द्वारा भावसग्रहकी गाथाओको लिये जानेकी अपेक्षा यही अधिक सभव प्रतीत होता है कि भावसग्रहके कर्ताने ही वसुनन्दिको अपनाया और वसुनन्दिको ही क्यो, उन्होंने जीवकाण्ड और द्रव्यसग्रहको भी सामने रखकर उनका भी अनुसरण किया प्रतीत होता है। जीवकाण्डमें' मिथ्यात्वके पाँच भेद करके बुद्धको एकान्तवादी, ब्रह्मको विपरीतवादी, तापसको वैनयिक, इन्द्रको संशयिक और मस्करीको अज्ञानी कहा है । भावसग्रहमें भी उन्हीको आधार बनाकर मिथ्यात्वके पांच भेदोका कथन किया है (गा० १६-१७१) । किन्तु उसमें ब्रह्मसे ब्राह्मण लिया है। दर्शनसारमें बुद्धको एकान्तवादी, श्वेताम्वर सघके प्रवर्तकको विपरीतवादी, मस्करी पूरणको अज्ञानी कहा है और वैनयिकोको अनेक प्रकारका बतलाया है। यदि दर्शनसारके रचयिताकी कृति भावसग्रह होती तो वे श्वेताम्बर सघको सशय मिथ्यात्वी न कहते । साथ ही मिथ्यात्वका कथन करते हुए तथोक्त जैनाभासोको यू ही अछूता न छोड देते । चूकि भावसग्रहके कर्ता उन्हीमेंसे थे इसलिये उन्होने उनको छोड दिया जान पडता है। १ 'एयत बुद्धदरिसी विवरीओ बम्ह तावसो विणओ । इदोविय ससइओ मक्क डिओ चेव अण्णाणी ॥१६॥'-जी का०

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