Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 446
________________ ४३८ जैनसाहित्यका इतिहास चालू चर्चाके मध्यमें उक्त कथन बिल्कुल बेमौके प्रतीत होता है। उसका गाथा २१ और २७ के साथ कोई सम्बन्ध नही है। अस्तु, २७वी गाथामें, जिसका नम्बर कर्मकाण्डमे २१ है आठो कर्मोका स्वभाव उदाहरणके द्वारा प्रकट किया गया है। कर्मप्रकृतिकी जो प्रति हमारे सामने है उसमें उस गाथाका संस्कृतमें व्याख्यान किया गया है। आगे नवीन आठ गाथाओके द्वारा उसी कथनको विस्तारसे किया है अर्थात् एक एक गाथाके द्वारा एकएक कर्मका स्वभाव बतलाया गया है । फिर गाथा ३६ में जिसका क्रमाक कर्मकाण्डमें २२ है प्रत्येक कर्मको उत्तरप्रकृतियोकी सख्या वतलाई है। आगे जीवकाण्ड के ज्ञानमार्गणाधिकारसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञानका लक्षण बतलानेवाली गाथाएँ देकर तथा दर्शनमार्गणाधिकारसे दर्शन, चक्षुदर्शन, अचक्षदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन सम्बन्धी गाथाएँ देकर ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मोकी प्रकृतियां वतलाई ' है। दो गाथाओके द्वारा जिनकी क्रमसख्या ४७-४८ है, दर्शनावरणीयके भेद गिनाकर पाचो निद्राओका स्वरूप तीन गाथाओके द्वारा बतलाया है। ये तीनों गाथाएँ कर्मकाण्ड की है। कर्मकाण्डमें इनकी क्रमसख्या २३, २४, २५ है और कर्मप्रकृतिमें ४९, ५०, ५१ है । गाथा ५२-५३ के द्वारा वेदनीय और मोहनीयके एक भेद दर्शनमोहनीयके भेद बतलाकर कर्मकाण्डकी २६वी गाथाके द्वारा दर्शनमोहनीयके तीन भेद कैसे हो जाते है यह बतलाया है। आगे चारित्रमोहनीयके भेद गिनाये है। उसके लिये पहली दो गाथाएँ तो नई रची गई है । आगे कपायके भेदोका कथन करनेवाली ५ गाथाएँ जीवकाण्ड के कषायमार्गणाधिकारसे ली गई है। फिर एक गाथा न० ६२ के द्वारा नोकषायके भेद बतलाये है । आगे स्त्री और पुरुषकी व्युत्पत्ति करनेवाली दो गाथाएँ तथा नपुंसक वेदका स्वरूप बतलाने वाली एक गाथा जी का के वेद मार्गणाधिकारसे ली है। आगे आयु और नाम कर्मकी प्रकृतियोको गिनाया है। कर्मकाण्डमें गा० २७ के द्वारा पांच शरीरोके सयोगीभेद, गा० १८के द्वारा शरीरके आठ अग और गाथा २९-३२के द्वारा सहननोके बारेमें विशेष कथन किया गया है तथा गाथा ३३के १ जी० का०, गा० ३०५, ३१४, ३६९, ४३७, ४५९। २ जी०का०, गा० ४८१, ४८३, ४८४,४८५ । इनमेंसे गा० ३०५ के उत्तरार्ध में थोडा परिवर्तन कर दिया गया है। ३ जी०का०, गा० २८३, २८४, २८५, २८६ और २८२ । ४ जी० का०, गा० २७२, २७३, २७४ ।

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