Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 449
________________ उत्तरकालीन कम - साहित्य ४४१ शताब्दी पर्यन्त ५०० वर्षोंके सुदीर्घ कालके अन्दर किसी समय इस कर्मप्रकृतिका सकलन किया गया है । इस कालमें कव इसकी रचना हुई यही विचारणीय है संस्कृत क्षपणासारके रचयिता माधवचन्द्र त्र विद्यके गुरुका नाम भी नेमिचन्द्र गणी था । उन्होने क्षपणासारकी प्रशस्तिमें उन्हें सैद्धान्ताधिप लिखा है । कर्मकाण्डके आधार पर सकलित वन्ध त्रिभगीके रचयिताका नाम एक प्रतिमें नेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्र लिखा है । मत क्षपणासारके रचयिता माधवचन्द्रके गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्ती ही कर्म प्रकृतिके सकलयिता प्रतीत होते है । माधवचन्द्र ने क्षपणासारको शक स० ११२५ (वि०स० १२६० ) मे रचा है । अत कर्मप्रकृति भी इसी समय लगभग संकलित की गई जान पडती है । बन्धत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभगी जिस तरह किसी सकलयिताने कर्मकाण्डके आधारसे कर्मप्रकृतिकी सकलना की है संभवतया उसी प्रकार कर्मकाण्डके आधार पर अन्य भी प्रकरण सग्रहीत किये गये है । इसी तरहके तीन प्रकरण कर्मकाण्डके बन्धोदय सत्त्व नामक दूसरे अधिकारसे सकलित किये गये है । कर्मप्रकृतिके सकलयिताकी तरह इनके सकलयिताने उक्त अधिकारसे अपनी रुचिके अनुसार गाथाएँ सकलित की है और आवश्यकताके अनुसार उनके बीचमें कुछ स्वरचित गाथाएँ भी जोड दी है । इनमेंसे प्रथम प्रकरण वन्धत्रिभगीका प्रारम्भ कर्मकाण्डके दूसरे अधिकारकी प्रथम गाथासे होता है जिसकी क्रमसख्या कर्मकाण्डमें ८७ है । ८७के वाद ८८वी गाथा है और फिर कर्मकाण्डकी गा० ३४, ३७ यथाक्रम है । फिर कर्मप्रकृतिकी ५३ - ५४वी गाथा यथाक्रम है । फिर कर्मकाण्डकी ३५वी गाथा है । फिर कर्म - काण्डके दूसरे अधिकारकी ८९, ९०, ९१ नम्बरकी तीन गाथाएं छोडकर ९२वी से १०७ पर्यन्त गाथाएं है । फिर जीवकाण्डकी १२८वी और त्रिलोकसारकी २०३वी गाथा है । पुन कर्मकाण्डकी गाथा १०८ और १०९ है । फिर एक गाथा स्वरचित है । पुन कर्मकाण्डकी गाथा ११० है । फिर स्वरचित गाथाएँ है । बीच-बीचमें कुछ व्याख्या भी संस्कृत में है । सदृष्टिया भी है इस तरहसे बधत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभंगी का कथन किया गया है। कुल गाथा सख्या १४३ है | अन्तमें लिखा है 'तत्त्वत्रिभगी समाप्ता ।' शायद 'सत्त्व' के स्थानमें तत्त्व लिखा गया । एक दूसरी प्रति भी उक्त भण्डारमें उसीके साथ है उसमें 'सत्त्वत्रिभगी' लिखा हुआ है उसमें कुछ गाथाएँ अधिक है । । इनकी एक संस्कृत टीका भी है । उसके सम्बन्धमें आगे प्रकाश डाला जायेगा । आराके जैनसिद्धान्त भवनमें त्रिभगीके नामसे एक हस्तलिखित ग्रन्थ वर्तमान है उसमें ही उक्त प्रकरण वर्तमान है ।

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