Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 441
________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४३३ है। इसमें ग्रन्थकारने जीवसमास, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग, योग और लेश्या आदिका कथन किया है । इसका दूसरा नाम आगमिक वस्तु विचारसार भी है। इसमें जो विषय वर्णित है वह सब गोमट्टसार जीवकाण्डमें है। किन्तु दोनोकी शैलीमें बहुत अन्तर है । जीवकाण्डमें वीस प्ररूपणाएं है और प्रत्येक प्ररूपणाका उसमें वहुत विस्तृत और विशद वर्णन है। प्रकृत षडशीति तो उसका एक अंश जैसा है। अनेक स्थलोमें दोनोमें मतभेद भी है। ____ इसके रचयिता जिनवल्लभगणि चत्यवासी जिनेश्वर सूरिके शिष्य थे और उन्होने नवाग वृत्तिकार अभयदेव सूरिके पास विद्याध्ययन किया था। इससे वह चैत्यवासके विरोधी हो गये और उन्होने अभयदेव सूरिसे दीक्षा ली। वादको वे उनके पट्टधर हुए और स० ११६७ में उनका स्वर्गवास हुआ । ___ इस ग्रथकी तीन वृत्तियाँ उपलब्ध है । एक वृत्ति तो बन्धस्वामित्व पर वृत्तिके रचयिता हरिभद्रसूरिकी है । दूसरी वृत्ति मलय गिरिकी है। तीसरी वृत्ति यशोभद्र सूरिकी है । इनमेंसे पहली दो वृत्तियोके साथ षडशीतिका प्रकाशन आत्मानन्द सभा भावनगरसे हुआ है। ये सब वृत्तियाँ विक्रमकी १२वी १३वी शताब्दी की है। जिन वल्लभ गणिका एक सार्धशतक नामक ग्रथ भी है । इसमें १५५ गाथायें है और ११० गाथाओका उसपर एक भाष्य है । उसके कर्ताका नाम ज्ञात नही है। मुनिचन्द्र सूरिने वि० सं० ११७० में उस पर चूणि रची थी और धनेश्वर सूरिने उसी समयके लगभग उस पर वृत्ति रची थी। देवेन्द्रसूरि रचित नव्य कर्मग्रन्थ आचार्य देवेन्द्रसूरिने पाँच कर्मग्रन्थोकी रचना की थी और उन्होने उनका नामकरण भी पूर्व में विद्यमान प्रकरणोके नामोके आधारपर कर्मविपाक, कर्शस्तव, वन्धवामित्व, पडशीति और शतक ही रखा था। वास्तवमें उनके ये पांचो कर्मग्रन्थ स्वतत्र नही है किन्तु प्राचीन कर्मग्रन्थोके आधारपर ही उनकी रचना हुई है। यद्यपि ग्रन्थोका नाम, विपय, वस्तु वर्णनका क्रम आदि प्राय सभी उक्त प्राचीन कर्मग्रन्थोंका ऋणी है। तथापि उसमें जो वैशिष्ट्य है वह ग्रन्थकारके वैदुष्य और रचना चातुर्यका परिचायक है। इन नवीन कर्मग्रन्थोकी इस विशिष्टताके कारण ही प्राचीन कर्मग्रन्थोकी ओरसे पाठक उदासीन जैसे बन गये । -जल-मा० इ० (गु०), पृ० २३०-३१ । २ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे षडशीति नामक नवीन चतुर्थ कर्मग्नथका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। उससे मतभेदोको जाना जा सकता है। २८

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