Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 01
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ ४१० · जेनसाहित्यका इतिहास इसी तरह दसवें गुणस्थान तक आठो कर्मीका उदय होता है, ग्यारहवें और वारहवें गुणस्थानमें मोहनीयके विना सातकर्माका उदय होता है । तथा तेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमे चार ही कर्माका उदय होता है । अत आठ कर्मोके तीन उदयस्थान होते है-आठ प्रकृतिक, मात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । ग्यारहवे गुणस्थान तक आठो प्रकृतियोकी गत्ता रहती है, वारहवें गुणम्यानमे मोहनीयके बिना सात कर्मोंकी ही गत्ता रहती है और तेरहवें तथा चौदहवे गुणस्थानमें चार कर्मो की ही सत्ता रहती है । अत आठो कर्मोक तीन मत्त्वस्थान -आठ प्रकृतिक, गात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक । इसी तरहका कथन प्रत्येक कर्मके विषयमें भी किया गया है । आठो कर्मोमेंरो वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमेने एक जीवके एक समयमे एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है और एकका ही उदय होता है । ज्ञानावरण और अन्तरायकी पांचो प्रकृतियांका एकगाथ बन्ध, उदय और सत्त्व होनेसे स्थान एक ही है । अत इन पांच कर्मो को छोड़कर दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मके वन्धस्थानो, उदयस्थानी और सत्त्वम्थानोका कथन बहुत विस्तार किया गया है । प्रत्येकका कथन करनेके बाद निमयोगी भगोका कथन है अर्थात् वन्धमे उदय और सत्त्व, उदयमें वन्ध और सत्त्व और सत्त्वमें बन्ध और उदयका कथन किया गया है । फिर बन्धादिमेंसे दोको आधार और एकको आधेय बनाकर कथन किया गया है । प्रा०दि० पञ्चसग्रहके अन्तर्गत शतक तथा सप्ततिका नामक अधिकारमें भी उक्त कथन है और कर्मकाण्डका उक्त कथन उसका ऋणी जान पडता है । कुछ गाथाएँ भी दोनोमे मिलती हुई है । 'कथनमें कुछ भेद भी है। जिसका कारण विवक्षा भेदके साथ मतभेद भी है, वह मतभेद परम्परामूलक है । इस प्रकरणमें आठो कर्मोके विपयमें प्रसगवश आगत कर्मविषयक और भी बहुत सा ज्ञातव्य विषय है । यह अधिकार बहुत विस्तृत है इसकी गाथा संख्या ३३४ है । ६ प्रत्ययाधिकार — इस अधिकारमें कर्मबन्धके कारणोका कथन है । मूल कारण चार हैमिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग । तथा इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५, और १५ = कुल ५७ होते हैं । गुणस्थानोमें इन्ही मूल और उत्तर प्रत्ययोका कथन इस अधिकार मे किया गया है कि किस गुणस्थानमें वन्धके कितने प्रत्यय होते है । और उनके भङ्गोका भी निर्देश किया है । प्रा० पंञ्चसग्रहके शतका १ इस भेदको जाननेके लिए सप्ततिका प्रकरणका प० फूलचन्द्रजी कृत अनुवाद ( पृ० १०३) देखना चाहिए ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509